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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मांगलिक दृष्टि हमेशा दूसरों के गुण दखती है, जिसमें उन्हें अपनाया जा संक और अपने दोष देखती है, जिससे उन्हें सुधारा जा सके । इस प्रकार यह दृष्टि अधिक से अधिक सजनों की सृष्टि करती है । अमांगलिक दृष्टि दूसरों को दु:खी देखकर खुश होती है: इसलिए दूसरों को सताने के लिए व्यक्ति को प्रेरित करती है । उसे दुष्ट बनाकर ही दम लेती है । जल में डूबते किसी चूहे को एक हंस ने बचा लिया । उस समय वह मार ठण्ड के ठिठुर रहा था; इसलिए दया कर क उसे उसने अपने परवों के नीचे छिपा लिया, जिससे बाहर की ठंडी हवा उस न लग और शरीर की गर्मी से उसे राहत मिले; किन्तु राहत पाकर चूहे ने हंस क पंखों को ही कुतर डाला ? फलस्वरूप हंस उड़ नहीं सका । अमांगलिक दृष्टिवाले दुष्ट अपने उपकारी पर भी उपकार करनेवाले ऐसे ही वह जैसे हात हैं। - गरु कपा से प्राप्त मंगलमय दृष्टि ही रमयग्दृष्टि है - सम्यकाव हैसदिवचारकता है- शुद्ध भावना है, जिसको प्राप्त किये बिना प्रजा हो या प्रभुदर्शन, सामायिक हो या प्रतिक्रमण, भक्ति हो या भजन, तपस्या हो या प्रत्याख्यान- कोई भी धार्मिक क्रिया सफल नहीं हो सकती ! जैसा कि कल्याणमन्दिर स्तोत्र में कहा हैं : आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्तया । जातोऽस्मि तेन जन-बान्धव ! दुःखपात्रम् यस्मात् क्रिया: प्रतिफलन्ति न भावशून्या: ।। (हे जनबन्धु प्रभो ! मैंने आपंक उपदेशी को खूब सुना है, आपकी खूब पूजा की है तथा आपक खूब दर्शन किय हैं : फिर भी निायपूर्वक मैंने आपको भक्ति-भाव से मन में स्थापित नहीं किया; इसीलिए में दु:खों का पात्र बना हुआ हूँ; क्योंकि भावशून्य क्रियाएँ कभी सफल नही होती ।) सद्गुरूओं के सान्निध्य से ज्ञानचक्षु खुलने पर अरूपी तत्त्व का साक्षात्कार होता है, जिसे आत्मा कहते हैं । यह एक नित्य तत्त्व हैं । शरीर बदल जाते हैं; परन्तु आत्मा नहीं बदलती । वह आनन्दमय होती है । प्रसन्न रहना और दूसरों को प्रसन्न रखना उसका स्वभाव होता है ।। आत्मज्ञ सदा आशाओं को वश में रखते हैं । वे आशाओं के वश में नहीं रहते । वे जानते हैं :९८ For Private And Personal Use Only
SR No.008731
Book TitlePratibodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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