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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [प्राणियों के लिए दुर्लभ (बहुत कठिनाई से प्राप हान बाले) चार अंग परम (श्रेष्ठ) हैं- मनुष्यता, श्रुति, श्रद्धा और संयम का पालन ।] चौरासी लाख जीवयोनियों में भटकते हए जीव को पाण्यां का विशाल पुंज एकत्र होने पर मनुष्य शरीर मिलता है । मनुष्य ही मनन कर सकता हे और अपने कर्मो का क्षय करक मोक्ष पा सकता है । पश अपना दु:ख शब्दों से प्रकट नहीं कर सकता, मनुष्य कर सकता है, क्योंकि उसे एक समद्ध और विकसित भाषा का ज्ञान होता है; इसलिए पश से मनष्य श्रेष्ठ है । मनुष्य शरीर पाकर भी कई लोग दुष्ट बन जाते हैं - दलों को सताते हैं - दूसरों की निन्दा करते हैं । ऐसे मनुष्यों से ता पश ही श्रेष्ठ होते हैं, जो वैसे बुरे कार्य नहीं करते ।। शास्ता की गाथा में "माणुस्सत्त" शब्दका प्रयोग है अर्थात मनुष्यता को दुर्लभ बताया गया है । सहानुभूति. स्नेह, अनुकम्पा, परोपकार आदि मानवता क अंग है । इन गुणों को आत्मसात करनेवाला ही वास्तव में मानव है; अन्यथा वह दानव है । दानवता सुलभ है, मानवता दलभ । दुसरा दुर्लभ अंग है - श्रुति अर्थात् शाला का श्रवण करना । प्रभ के वचनामृत का पान करने से धार्मिक जीवन की पष्टि होती है । प्रथम सखशय्या के रूप में इस पर विचार किया जा चका है । तीसरा दुर्लभ अंग हे- श्रद्धा । मनुष्य-भव में शास्त्रों क शवण का अवसर भी आ जाय, किन्तु यदि श्रद्धा पैदा न हो तो उसका लाभ नहीं मिल सकता । यदि सुनने के बाद कोई शंका हो तो जिज्ञासा क रूप म रखकर ज्ञानी गरूओं से उसका समाधान पा लेना चाहिये । कहा हैं : यस्याने न गलति संशय: समूलो नैवासो क्वचिदपि पण्डितोक्तिमेति ।। (जिसके सामने अपना संशय जड़मूल स न उखड़ जाय. उस कभी 'पंडित' नहीं कहते !) पंडित मुनियों से शंकाओं का निवारण कर लने पर श्रद्धा उत्पन्न होती है । यह श्रद्धा ही हमारे जीवन में परिवर्तन लाती है । चौथा दुर्लभ अंग है - संयम का पालन । श्रद्धा हो जाने पर भी प्रसाद के वशीभूत प्राणी संयम से कतराता है । संयमी जीवन में आनेवाले परीषहीं और उपसर्गों की संभावना से वह घबराता है । परिवार का मोह उसे रोकता है; इसलिए प्रभु ने संयम को सब से अधिक दुर्लभ बताया है । जो लोग संयमियों के सम्पर्क में रहकर उन के जीवन को निकट से ९४ For Private And Personal Use Only
SR No.008731
Book TitlePratibodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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