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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मज्ञान आत्मा के विषय में प्रवचन करना सरल है; किन्तु आत्म बोध के अनुरूप व्यवहार कठिन है । ज्ञान की परीक्षा व्यवहार से ही होती है । किसी की प्रशंसा में बोलना हो तो पाँच मिनिट भी मुश्किल से मिलते हैं और निन्दा के लिए घंटे निकल आते हैं । निन्दा का रस हमें पागल बना देता है । दूसरों की निन्दा करके लोग यह सोच कर प्रसन्न होते हैं कि हम उनसे अच्छे हैं। वे भूल जाते हैं कि निन्दा अपने आप में निन्दनीय है । एक शायर ने लिखा है : मैं बताऊं आपको अच्छोंकी क्या पहिचान है जो हैं खुद अच्छे वो औरों को नहीं कहते बुरा ! एक अच्छा आदमी देश को आबाद कर सकता है तो चुरा उसे बर्बाद कर डालता है । रूपी देह की अपेक्षा अरूपी आत्मा का महत्त्व अधिक है तो फिर लोग क्यों शारीरिक सुन्दरता पर मुग्ध होते हैं ? वे क्यों नहीं सोचते कि सुन्दर शरीर वाला भी दुर्जन हो सकता है और कुरूप शरीरवाला सजन भी हो सकता है ? सुन्दर शरीर तो एक वेश्या का भी होता है, परन्तु समाज में उसका सम्मान नहीं होता ! यह जानते हुए भी लोग सुन्दर शरीर के प्रति क्यों आकर्षित होते हैं ? एक कवि के शब्दों में : मनोहर दीखता यह देह पर सारा घिनौना है । अशुचि -१ -भंडार चिकने चामपर थे व्यर्थ भरमायें ।। ऐसा वे क्यों नहीं सोचते ? शुभाशुभ कर्म आत्मा के साथ लगे रहते हैं । हजारों गाये खड़ी हो, फिर भी बछड़ा उनमें से अपनी माँ को पहिचान लेता है और उसक पीछे-पीछे चलने लगता है; उसी प्रकार कर्म आत्मा के पीछे चलते है 1 इसीलिए कोई सुखी है, कोरई दुखी है | आपके हृदय में दुखियों को देखकर अनुकम्पा नहीं आती ? सत्यप्रेमी अपनी इन्द्रियों का गुलाम क्यों होते है ? इन्द्रियों को वह खिड़की दरवाजां की तरह क्यों नहीं देखता आत्मा में वह दुर्भावों की क्यों आने देता अयत = दस हजार, नियुत = एक लाख, परार्ध = ब्रह्मा की आधी आयु के वर्षो की संख्या के बराबर संख्या ६४ For Private And Personal Use Only महाशख या
SR No.008731
Book TitlePratibodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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