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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सञ्चा जैन लोग धर्म की बातें तो खूब करते हैं; परन्तु धर्म को अपनाते नहीं; इसीलिए. दुःखी रहते हैं । "धर्मो रक्षति रक्षितः ॥" (यदि हम धर्म की रक्षा करते हैं; तो धर्म हमारी रक्षा करता है) धर्म की रक्षा करने के लिए आत्मा के स्वरूप को समझना पड़ेगा । आत्मा का लक्षण है-चेतना, आनन्द, ज्ञान, दर्शन और चारित्र । शोक से आर्त्त ध्यान होता है, क्रोध से रौद्रध्यान । आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान से कर्मो का बन्ध होता है और जीव जन्म जरा-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। इससे विपरीत आत्मा के स्वरूप को पहिचान लेने पर धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान होते हैं, जो प्राणी को मोक्ष की ओर ले जाते हैं । - कर्मो से लिपटा जीव अनादिकाल से वासना की परिधि में निवास करता रहा है । उस परिधि से धर्म ही उसे बाहर निकाल सकता है । आत्मा पर लगी कर्म रज ज्यों- ज्यों हटती जायगी, त्यों त्यों आत्मा अधिकाधिक उजवल होती जायेगी । ___ संसार में घड़ी के पेंडुलम (लोलक) की तरह जीव राग और द्वेष के बीच झूल रहा है । वीतराग देव की शरण में जाने पर ही उसे शान्ति प्राप्त हो सकती है। वे हमारी नौका के कर्णधार हैं । प्रभु के प्रति अनन्य श्रद्धा हो - भक्ति हो- समर्पण का भाव हो तो भवसागर ही क्यों ? भौतिक दुःखो का सागर भी पार किया जा सकता है । जैसा कि जैनाचार्य श्री मानतुंगसूरि ने आदिनाथ स्तोत्र (भक्तामर) में लिखा हैं : अम्भौनिधो क्षुभित-भीषण-नक्रचक्रपाठीन-पीठ-भयदोल्बण-वाडवाग्नौ रंगतरड्ग - शिखर-स्थित-यानपात्रा स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ।। (वृद्ध और भयंकर नकों के समूह एवं मगरमच्छों के कारण भयभीत करनेवाले तथा प्रचण्ड वाडवाग्नि वाले समुद्र में हिलने वाली तरंगों के शिखर पर नौका में बैठे हुए यात्री भी आपका स्मरण करने से कष्टों में न पड़कर पार हो जाते हैं ।) एक बार यात्रियोंसे भरा हुआ एक जहाज समुद्र की सतह पर चला जा ४७ For Private And Personal Use Only
SR No.008731
Book TitlePratibodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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