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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्यक्त्व विवेक आत्मा का मित्र है, मिथ्यात्व उसका शत्रु । तत्त्वार्थ सूत्र में :मिथ्यादर्शनाविरति प्रमादकषाययोगा बन्धहेतव: ।। अध्याय ८ सूत्रा १ ।। (मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग- ये कर्मबन्ध के कारण माना है ।) ऐसा लिखकर वाचक प्रवर उमास्वाति ने मिथ्यात्व को कर्मबन्ध का कारण माना है । मिथ्यात्व के दो रुप होते हैं । पहला है - यथार्थ पर अश्रद्धा और दूसरा है - अयथार्थ पर श्रद्धा । दोनों में अन्तर यह है कि पहला बिल्फुल मूढ अवस्था में भी हो सकता है, किन्तु दूसरा विचार दशा में ही हो सकता है। पहला अनभिगृहीत मिथ्यात्व है. जो कीट पतंगो में या उने समान मूर्छित चेतना वाली जातियों में हो सकता है; परन्तु दूसरा अनभगृहीत मिथ्यात्व कहलाता है । यह मनुष्य जैसे मननशील प्राणी में ही संभव होता है । जो विचार करता है, वही किसी पर श्रद्धा कर सकता है - भले ही वह (श्रद्धेय) यथार्थ हो या अयथार्थ । शंका करना मिथ्यात्व नहीं है, किन्तु शंका मन में रखना मिथ्यात्व है। गीतार्थ गुरुदेव के सामने प्रश्नों के रुप में अपनी शंका प्रस्तुत कर के उसका समाधान प्राप्त कर लेना चाहिये । इसके बाद जो यथार्थ श्रद्धा उत्पन्न होगी, वही सम्यक्त्व का हेतु बनेगी । उसी से आचरण की प्रेरणा मिलेगी। धार्मिक व्यक्ति, घर में हो या जंगलमें, कभी अकेलापन महसूस नहीं करता । धर्म या सम्यक्त्वरत्न ही उसका साथी बन जाता है । उसक मन, वचन और वर्तन में एकता होती है : मनस्येकं वचस्येकम् कर्मण्येक महात्मनाम । मनस्यन्यद्वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम् ।। (महात्माओं के मन, वचन और कार्य में एकता होती है, किन्तु इंगत्याओं के मन, वचन और कार्य में भिन्नता होती है) For Private And Personal Use Only
SR No.008731
Book TitlePratibodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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