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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवी ने एक-एक पुष्पमाला दोनों को दी और कहा कि इन मालाओं क प्रभाव से शीलरक्षा होगी और आश्वासन दिया कि एक मास की अवधि में पतिदेव से मिलाप हो जायगा । देवी अदृश्य हो गई। फिर कुछ दिनों बाद कामज्वर प्रबल होने पर सेठजी नारी का वेष पहिन कर मिलने आये; परन्तु पुष्पहार के प्रभाव से हम पुरुषरूप में दिखाई दीं । सेठजी डरकर भाग गये । फिर इस द्वीप में आने पर आपके दर्शन हुए। मैंने भी अपना वृत्तान्त उन्हें सुनाया । प्रातःकाल उठने पर पता चला कि सेठजी स्वयं अपनी ही तलवार से कटे पड़े हैं। मेरी हत्या करने के लिए नंगी तलवार लेकर वे रस्सी के सहारे दिवार पर चढ़ने का प्रयास कर रहे थे; परन्तु तलवार हाथ से छूट गई और रस्सी टूटने से वे अपनी ही तलवार पर गिर कर कट मंर । उनकी अन्त्यष्टि के बाद कौशाम्बीनगर में सन्देश भेज कर धवलसेठ के पुत्र नवलसेठ को वहाँ बुलवाया और उन्हें समस्त पाँच सौ जहाजें सौंपकर बिदा किया । कुछ दिनों बाद सुनने में आया कि किसी राजा की कन्या गणसुन्दरी ने प्रतिज्ञा की है कि जो संगीतज्ञ मुझ से अच्छी वीणा बजायेगा, उसी सं में विवाह करूँगी । कुतूहलवश कुबड़े की आकृति में में वहाँ जा पहुंचा। वीणा बजाने की कला से सब को मुग्ध कर दिया । कन्या ने वरमाला मेरे गले में डाल दी । लोगों का सन्देह मिटाने के लिए में असली रूप में प्रकट हुआ । राजा ने धूम धाम से विवाह कर दिया । फिर कंचनपुर के स्वयंवर में जाकर राजा वज्रसेन की कन्या तिलोकसन्दरी से विवाह किया। वहीं किसी आगन्तुक से सुना कि दलपत शहर के राजा धरापाल की कन्या शृंगार सुन्दरी और उसकी पंडिता, विचक्षणा, निपुणा, दक्षा और प्रगुणा इन पाँच सखियों ने प्रतिज्ञा की है कि स्वयंवर सभा में जो हमारी समस्याओं की पूर्ति करेगा, उसी युवक से हम विवाह करेंगी । मैं गया और अभीष्ट समस्यापूर्ति के द्वारा सब को सन्तुष्ट करके उन छ हों से विवाह कर लिया उसके बाद राधावेध के द्वारा सन्तुष्ट होकर कोलागपुर नरेश पुरन्दरने अपनी पुत्री जयसुन्दरी से मेरा विवाह कर दिया। फिर मुझे आप दोनो की याद आई; इसलिए आगे न बढ़कर लौट आया । मार्ग में सपाश्रनगर के राजा महासेन की राजकुमारी तिलकसुन्दरी सर्प दंश से मूर्छित हो गई थी । नवपद का स्मरण करके उसे मूर्छा से मुक्त किया तो राजा ने मेर साथ उसका विवाह कर दिया । इस प्रकार यह विशाल सेना, ऋद्धि समुद्धि और ये समस्त पलियाँ आपकी प्रथम पुत्रवधू मयणासुन्दरी से प्राप्त नवपद-भक्ति का ही सुफल है ।" बात ही बात में रात बीत गई। राजा प्रजापाल ने अभिनन्दन के साथ सबको नगर में प्रवेश कराया। कुछ दिनों बाद श्रीपालजी ने काका अरिदमन से अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया । ११६ For Private And Personal Use Only
SR No.008731
Book TitlePratibodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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