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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org फल यह हुआ कि अपने गुणों से ख्याति अर्जित करने के लिए बारह वर्ष आठ दिन के बाद निश्चित रूपसे लौट आने का वचन माता और पत्नी को देकर श्रीपालजी चल पड़े । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वचन के ही अनुसार एक वर्ष और सात दिन की अवधि पूरी होने पर रात को गुप्तरूप से राजमहल में पहुँचकर श्रीपाल अपनी माता और मैना को नगरी से बाहर ले गये । वहाँ अपने डेरे पर ले जाकर उन्होंने अपना संपूर्ण वृत्तान्त संक्षेप में दोनों को इस प्रकार सुनाया : " जंगल में भ्रमण करते हुए, एक विद्याधर की विद्यासिद्धि मं सहायक बनने के कारण प्रसन्न होकर मुझे उसने दो विद्याएँ सिखा दी- जलतारिणी और शस्त्रतारिणी । आगे बढ़ने पर एक योगी को मेरी उपस्थिति से स्वर्णसिद्धि में सहायता मिल गई । उसने भी अत्यन्त आग्रह के साथ मुझे थोड़ासा स्वर्ण भेंट किया । वहाँ से चलकर भड़ौच नगर के बाहर एक उद्यान में विश्राम करने बैठा तो मुझे नींद आ गई। लोगों का शोरगुल सुनकर मैंने आँख खाली तो अपने को सैनिकों से घिरा पाया। पूछने पर पता चला कि धवल सेठ के अटके हुए पाँच सौ जहाजों को चलाने के लिए वे मेरी बलि देना चाहते हैं । मैंने सेठजी के पास पहुँच कर कहा कि किसी पुरुष की हत्या से न कभी कोई जहाज चला है और न चलेगा । यह एक भयंकर अन्धविश्वास है । मैं बिना हत्या किये ही आपके सारे जहाज चला सकता हूँ । फिर नवपद का स्मरण करते हुए मैंने एक-एक जहाज को छुआ कि वह तत्काल चल पड़ा। सेठजी के साथ जहाज में दूर-दूर तक पर्यटन का अवसर मिलेगा ऐसा सोचकर सौ स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिमास के किराये पर जहाज में मैंने स्थान ले लिया । इस प्रकार मेरी सामुद्री यात्रा प्रारंभ हुई । बर्बरदेश में पहुँचे । वहाँ महसूल न चुकाने पर अपराध में धवलसेठ पकड़ा गया । सेठजी को नीतिकारों का यह वाक्य याद आ गया "सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध त्यजति पण्डितः ।। " ( सर्वनाश के अवसर पर जो आधे का त्याग कर देता है, वह पंडित है ) -: बोले “ श्रीपालजी ! कृपा करके मुझे छुड़ा लीजिये । माल से भरी हुई आधी जहाजें मैं आपको भेंट कर दूँगा ।" मैंने शस्त्रनिवारिणी विद्या का उपयोग करके युद्ध में महाकाल की ११४ For Private And Personal Use Only
SR No.008731
Book TitlePratibodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size6 MB
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