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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वस्तुएँ कितनी भी मूल्यवान् क्यों न हों, उनका संग्रह हमें नहीं करना चाहिये। एक राजा था। उसे बहुमूल्य रत्नों के संग्रह का बहुत शौक था। एक दिन किसी विवेकी व्यक्ति को आदरसहित अपने राजमहल में आमन्त्रित करके उसने अपने समस्त रत्नों का संग्रह दिखा दिया। उसका हृदय प्रशंसा का भूखा था। उसने सोचा था कि इतने अधिक हीरे, पन्ने, माणिक्य, मोती आदि देख कर वह सज्जन मेरी प्रशंसा करेगा। परन्तु आशा से विपरीत उस विवेकी सज्जन ने रत्नराशि की ओर संकेत करते हुए पूछा : “राजन् ! आपको इस रत्नराशि से आमदनी क्या होती है ?" राजा : "प्रामदनी कैसी ? इस रत्न राशि की सुरक्षा के लिए वेतन देकर रक्षक नियुक्त किये गये हैं; इस लिए खर्च और बढ़ गया है। आमदनी का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता !" इस पर विवेकी सज्जन ने कहा : "मेरे पड़ोस में एक बुढिया रहती है। उसने एक बार दो पत्थर की शिलाएँ खरीदीं । फिर उनसे घट्टी (चक्की) बनवा ली। उस घट्टी की आमदनी से वह अपना पेट भरती है और अपने बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी निकाल लेती है; परन्तु दूसरी. ओर आप हैं, जिन्हों ने करोड़ों रुपयों के कुछ चमकीले पत्थर खरीद लिये हैं-ऐसे पत्थर, जिन से कोई आमदनी बिल्कुल नहीं होती; उल्टे खर्च ही करना पड़ता है ! ऐसी अवस्था में आप स्वयं ही सोच कर बताइये कि उस बुढिया से क्या प्रापकी समझदारी कम नहीं है ?'' For Private And Personal Use Only
SR No.008725
Book TitleMitti Me Savva bhue su
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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