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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूर्य मौन हो गये। उधर अपनी योजना के अनुसार एक ब्राह्मण का वेष धारण करके इन्द्रने कवच-कुज्डल माँग लिये । कर्ण ने खुशी-खुशी उतार कर दे भी दिये । इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि वह युद्ध में परास्त ही नहीं हुआ, बल्कि मारा भी गया ! किन्तु दानवीर के रूप में उसकी कीति आज भी जीवित है। मराठी की एक सूक्ति है : "मरावे परी कीतिरूपे उरावें ॥" [मरे, किन्तु कीर्ति के रूप में जीवित रहें] एक मधुमक्खी बैठी-बैठी अपने हाथ घिस रही थी। राजा भोज की नज़र उस पर पड़ी। उसने अपने सभी दरबारियों से उस (मक्खी) की इस (अगली टाँगें घिसने की) चेष्टा का कारण पूछा। किसीने कुछ बताया और किसीने कुछ; परन्तु किसी का भी उत्तर राजा भोज को सन्तोषकारक नहीं लगा। ___ अन्त में आशाभरी नज़र से राजा भोजने कविकुलकुमुद कलाधर महाकवि कालिदास की और देखा। वे तो उत्तर देने के लिए तैयार ही बैठे थे। महाराज का संकेत पाते ही बोल उठे : देयं भो ह्यधने धनं सुकृतिभि-नों सञ्चितं सर्वदा । श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपते-रद्यापि कीर्तिः स्थिता ॥ प्राश्चर्य मधु दान-भोग-रहितम् नष्टं चिरात्सञ्चितम् । निर्वेदादिति पाणिपादयुगलम् धर्षन्त्यही मक्षिकाः।। [अरे ! सज्जनों को चाहिये कि वे निर्धनों में धन वितरित किया करें; क्योंकि संचित घन सदा टिकता नहीं है। दानवीर श्रीकर्ण, राजा बलि और विक्रमादित्य का सुयश आज भी टिका हुआ है । आश्चर्य की बात है कि दान और भोग For Private And Personal Use Only
SR No.008725
Book TitleMitti Me Savva bhue su
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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