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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान ॥ दया अथवा दान के बाद दयालु अथवा दाता के मन में अभिमान का प्रवेश हो गया तो वह पाप का कारण बन जायगा। किसी इंग्लिश विचारक ने कहा था : We are to be made happy, let us never forget it, by what we are, not by what we have. [हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि जो कुछ हम हैं (जैसे निरभिमान, सदाचारी, दयालु, दाता आदि), उसी से हम सुखी हैं; जो कुछ (धन-संपत्ति) हम रखते हैं, उससे नहीं] धन को दौलत भी कहते हैं । दौलत दुलत्ती झाड़ती है। पहली लात से सीना फूल जाता है-शरीर में धमण्ड छा जाता है और दूसरी लात से कमर झूक जाती है-विषयासक्ति के कारण बुढापा छा जाता है। देने में जो पानः आता है, वह लेने में कहाँ ? किसी ने इसीलिए कहा है : "दो, भले ही स्वर्ग देना पड़े ! मत लो, भले ही स्वर्ग मिल रहा हो !" अब तो केवल भोजन देना ही सार्मिक वात्सल्य का रूप रह गया है; किन्तु मूलरूप में वह किसी भी स्वधर्मी बन्धु को हर तरह की सहायता के लिए प्रेरित करने वाला था। मांडवगढ़ में किसी समय यह परम्परा थी कि यदि कोई स्वधर्मी बन्धु बाहर से आकर वहाँ बसता था तो प्रत्येक घर से उसे एक स्वर्णमुद्रा और एक इंट दी जाती थी। इस प्रकार आते ही वह लखपति बन जाता था और फिर व्यापार For Private And Personal Use Only
SR No.008725
Book TitleMitti Me Savva bhue su
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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