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________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २४५ [सामने मीठा बोलने वाले और पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाले मित्र का त्याग इसी प्रकार कर देना चाहिए, जिस प्रकार विष से भरे हुए उस घड़े का त्याग किया जाता है, जिसके मुंह में दूध हो] सच्चा मित्र स्वयं कष्ट झेलकर भी निरन्तर सहायता के लिए कटिबद्ध रहता है । कहा है : मित्र ऐसा कीजिये, जैसे लोटा-डोर । प्रापुन गला फँसाइके, प्यावै नीर झकोर ॥ लोटा अपना मित्र है, इसलिए डोरमें अपना गला फँसा कर वह कूएमें उतर जाता है। वहाँ से जल लेकर ऊपर आता है और पिलाकर प्यास मिटा देता है । मित्र मनुष्य भी दूसरे मित्रों के साथ ऐसा ही व्यवहार करता है। मित्रता को समझनेके लिए दूध और पानीका दृष्टान्त भी बहुत उपयोगी है : क्षीरेणात्मगतोदकाय हि गुणा दत्ता: पुरा तेऽखिलाः क्षीरे तापमवेक्ष्य तेन पयसा ह्यात्मा कृशानों हुतः गन्तुं पावकमुन्मनस्तदभवद् दृष्टवा तु मित्रापदम् युक्तं तेन जलेन शाम्यति सताम् मैत्री पुनस्त्वीदृशी ॥ [दूध में जल मिल गया। दूधने अपने सारे गुण उसे दे दिये । जब दूध को ताप लगा तो यह देखकर जल पहले आग में जलने लगा। दूधने सोचा कि मित्र (जल) के शत्रु (आग) को नष्ट कर देना चाहिये। इसके लिए वह उफनने लगा। जब जल के कुछ छींटे उफनते दूध पर डाले गये, तब मित्रमिलन की प्रसन्नता से दूध पुन: शान्त हो गया। सज्जनों की मैत्री ऐसी ही होती है] हितोपदेश में मित्र को रत्न बताया गया है : शोकारातिभयत्राणम् प्रीतिविश्रम्भभाजनम् केन रत्नमिदं सृष्टम् मित्रमित्यक्षरद्वयम् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008725
Book TitleMitti Me Savva bhue su
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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