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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२३ प्रशस्ति सुनकर राजा लोग उन पर प्रसन्न हो जाते थे और उन्हें पुरस्कार में प्रचुर धन देते थे। इससे उनकी आजीविका चलती थी-पूरा परिवार पलता था । ऐसा एक चारण कवि किसी कंजूस सेठ के पास जा पहुँचा । उसने प्रशस्तिकाव्य सुनाकर सेठकी तबीयत खुश कर दी। कुछ-न-कुछ इनाम तो देना ही पड़ेगा अब-ऐसा सोच कर सेठने कह दिया : “मैं तुम्हें एक पगड़ी दूंगा।" चारण सन्तुष्ट होकर चला गया। दूसरे दिन जब पगड़ी माँगने पहँचा तो जिस मनहरण कवित्त से चारणने प्रशस्तिगान किया था, उसी छन्द में सेठ ने उससे ऐसा कहा : 'पाघ देनी कही सो तो, माँगत हो आज ही पै, आवेगो असाढ तब, बन हु बुवावेंगे । होवेगो कपास तब, लोड - पीज - कात - बुन, कोऊ चतुर धोबी तें, ऊजरी धुवावेंगे । बुगचा में बाँध घर, रखेंगे कितेक दिन, प्रावेगो कसुम्बो तब, गुलाबी रंगावेंगे । हम बाँध 'पुत बाँध, पोते पड़पोते बाँध, पीछे हम 'वाही पाघ तुमको दिलावेंगे । चारणने अपना माथा ठोक कर कहा कि तुम्हारे प्रपौत्र (पुत्र के पुत्र के पुत्र) के सिरसे पगड़ी उतरने तक न तुम जीवित रहोगे और न मैं ही रहूँगा ! ऐसे कृपणों का भला कौन मित्र बनना चाहेगा ? कोई नहीं। १. पगड़ी। २. गठरी। ३. वसन्त ऋतु । ४. पुत्र । ५. पौत्र (पुत्र का पुत्र)। ६. प्रपौत्र । ७. वही। For Private And Personal Use Only
SR No.008725
Book TitleMitti Me Savva bhue su
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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