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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मितभाषिता : एक मौन साधना मौन और सम्यक्त्व : प्रभु महावीर द्वारा उपदिष्ट आचारांग सूत्र की एक टीका में लिखा है : मनुर्भावो मौनम् ।। [ मुनि के भाव को मौन कहते हैं ] व्रत जो स्वीकार करता है, उसे मुनि कहते हैं. इस व्रत को स्वीकार करके मुनि को क्या करना चाहिये ? प्रभु फरमाते हैं आचारांग सूत्र में : “मुणी मोणं समादाय धुणे कम्मसरीरयं । । " [ मुनि मौन रहकर कर्मरूपी शरीर को हिलाये - नष्ट करे-आत्मा से अलग करे ] परन्तु मौन के मूल में संयम होना चाहिये. डरके मारे या अज्ञान के कारण मौन रहना मुनित्व नहीं हो सकता. एक विचारक ने लिखा है- “ भय से उत्पन्न मौन पशुता है और संयम से उत्पन्न मौन साधुता है." प्रभु महावीर ने मौन और सम्यक्त्व का अविनाभाव इन शब्दों में प्रकट किया है : "जं सम्मति पासहा तं मोणंति पासहा । जं मोणंति पासहा तं सम्मति पासहा ।।” [ जिसे सम्यक्त्व के रूप में देखते हो, उसे मुनित्व (मौन) के रूप में देखो और जिसे मुनित्व के रूप में देखते हो, उसे सम्यक्त्व के रूप में देखो ] सम्यक्त्व का विलोम मिथ्यात्व है. दोनों एक साथ नहीं रह सकते . यदि सम्यक्त्व (मौन या मुनित्व) है तो मिथ्यात्व (झूठ) नहीं रह सकता. जहाँ प्रकाश है, वहाँ अन्धकार नहीं रह सकता. असत्य का प्रयोग वाणी से होता है; इसलिए मौन की भूमिका अगर मिल जाय तो वाणी असत्य से दूषित नहीं होगी. यही कारण है कि भारत के बड़े-बड़े योगी, ऋषि, महर्षि, ज्ञानी, महात्मा मौन की साधना में लीन रहें हैं. मौन आत्म शक्ति का प्रतीक : योगदर्शन के रचयिता महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रन्थ में लिखा है आपकी आत्मशक्ति उतनी ही अधिक केन्द्रित होगी." For Private And Personal Use Only ." आप जितना कम बोलेंगे,
SR No.008716
Book TitleJivan Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1995
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size7 MB
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