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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि की सामाजिक एवं धार्मिक उपादेयता मृतप्राय हो जाती है. क्योंकि हिंसा का मूलभूत कारण तो मनुष्य की भोगाकांक्षा तथा स्वार्थवृत्ति ही है. इस तप और संयम से समन्वित अहिंसा धर्म की मंगलमयता का उद्घोष करते हुए दशवैकालिकसूत्र के प्रारम्भ में ही कहा गया है - "अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म ही सर्वोत्कृष्ट मंगल है, कल्याणकारी है. जो इस विविध धर्म के पालन में दत्तचित्त है उसे मनुष्य तो क्या देवता भी नमस्कार करते हैं. जैन साधना का लक्ष्य मोक्ष है, शुद्ध आत्म तत्त्व की उपलब्धि है, जो तप से ही सम्भव है. जैन साधना में तप का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, इस तथ्य के साक्षी जैनागम ही नहीं है, प्रत्युत बौद्ध और हिन्दू आगमों में भी जैन साधना के तपोमय स्वरूप का चित्रण उपलब्ध होता है. वैदिक-साधना चाहे अपने प्रारम्भिक काल में तप प्रधान (निवृत्तिमूलक) न रही हो, लेकिन अपने विकार की प्रक्रिया में श्रमण-परम्परा से प्रभावित हो, समन्वित हो तपोमय जीवन से युक्त हो गई. वैदिक ऋषि तप की महत्ता का स्पष्ट शब्दों में उद्घोष करते हुए कहते हैं - "तपस्या से ही वेद उत्पन्न हुए, तपस्या से ही ऋत और सत्य उत्पन्न हुए. तपस्या से ही ब्रह्म को खोजा जाता है. तपस्या से ही मृत्यु पर विजय पायी जाती है और ब्रह्म-लोक प्राप्त किया जाता है. तपस्या के द्वारा ही तपस्वीजन लोक-कल्याण का विधान करते हैं, और तपस्या से निश्चय ही लोक में विजय प्राप्त की जाती है.” इतना ही नहीं, अपितु तप, जो साधन है, उसे साध्य के समकक्ष मानते हुए वे कहते हैं - 'तप ही ब्रह्म है.' भारतीय नीति-शास्त्र के प्रवर्तक महर्षि मनु कहते हैं - "तपस्या के ऋषिगण त्रैलोक्य जगत के चराचर प्राणियों को साक्षात देखते हैं, जो कुछ भी दुर्लभ और दुष्कर इस संसार में है, वह सब तपस्या से साध्य है, तपस्या की शक्ति दुरतिक्रम है.” महापातकी और निम्न आचरण करने वाले भी तपस्या से तप्त होकर किल्विषी योनि से मुक्त हो जाते हैं. यह तो हुई प्राचीन काल के ऋषियों की बात, जो हिन्दू आचार शास्त्र के तप की महिमा को अभिव्यक्त करती है. तप की महत्ता के संबंध में और भी सैंकड़ों साक्ष्य हिन्दू आगम ग्रन्थों में है. गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा वर्णित महत्त्वपूर्ण चौपाइयों में भी तप का उल्लेख आता है “तप सुखप्रद सब दोष नसावा ।" “करउजाइ तप अस जिय जानी ।।" बौद्ध साधना में तप का स्थान : यह स्पष्ट है कि तप शब्द, आचार के क्षेत्र में जिस कठोर अर्थ में जैन और हिन्दू-साधना में प्रयुक्त किया गया, वही तप शब्द बौद्ध-साधना में उसकी मध्यममार्गी साधना के कारण उस For Private And Personal Use Only
SR No.008716
Book TitleJivan Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1995
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size7 MB
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