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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म का रक्षण कहाँ किया? जव धर्म प्रचार विदेशों में किया जायगा, तब वे हमारे धर्म के आचार के बारे में जानेंगे, साधु जीवन के आचार के बारे में जानेंगे, तव वे साधु पर श्रद्धा रख पायेंगे?... ये कैसे साधु हैं जो अपने धर्म के आचार का पालन नहीं करते. जब ये अपने परमात्मा महावीर के नहीं हुए तो दूसरों के क्या होंगे. वल्लभसूरिजी महाराज अमृतसर से चलकर बंबई पहुंचे. वहाँ पर उन्होंने महावीर विद्यालय की स्थापना कराई, अन्तिम समय तक वे प्रवचन देते रहें. ८४ वर्ष की अवस्था में बंबई में ही उनका स्वर्गवास हुआ. उस समय का वर्णन करना बड़ा मुश्किल है. दो-दो किलोमीटर लम्बी लाइन उनके दर्शन के लिए लगी. लोगों की भावनाओं को देखकर तत्कालीन बंबई राज्य के मुख्यमंत्री मोरारजीभाई देसाई को कई स्पेशल आदेश देने पडे. भायखला जैन मन्दिर के प्रांगण में अग्निसंस्कार सम्पन्न हुआ. उस समय पांच लाख व्यक्ति अग्निसंस्कार में भाग लेने आये. वाद में वहीं पर गुरु मन्दिर वना. दिल्ली के अन्दर वल्लभ स्मारक के अन्तर्गत सेनिटोरियम, हॉस्पीटल, स्कूल वगैरह का निर्माण चल रहा है. राजस्थान से भी उनका लगाव रहा है, विशेषकर पाली जिले से तो उनका घनिष्ठ संबंध ही बन गया. पाली के समुद्रसूरिजी महाराज उनके पट्टधर शिष्य रहें, जिनकी स्मृति में आज यहाँ समुद्र विहार बना हुआ है जहाँ पर साधु-साध्वी अपना स्वाध्याय करते हैं. पाली और शिवगंज के अलावा राजस्थान में और कहीं ऐसा स्थान नहीं जहाँ साधु सन्त आकर ज्ञान लाभ प्राप्त कर सकें. मैं तो कहूँगा कि स्वाध्याय केन्द्रों का और अधिक विस्तार हो ताकि अधिक से अधिक लोगों को लाभ मिले. उसी तरह पाली से हमारा भी पारिवारिक संबन्ध है. हमारे दादा गुरु आचार्य भगवन्त कैलाससागरसूरिजी महाराज के गुरु सुखसागरजी महाराज और दादागुरु नेमसागरजी महाराज दोनों पाली के ही हैं. पाली का यह अहोभाग्य है कि यहाँ ऐसे-ऐसे समर्थ विद्वान निकले हैं. मेरी यही कामना है कि अव आगे भी पाली से इसी परम्परा में और भी आचार्य मिलते रहे. इसके लिए इस संस्था - समुद्र विहार को और अधिक विकास दे, अच्छे से अच्छे साधु संत, श्रावक यहाँ से निकले हैं तो वर्तमान में भी हम इस परम्परा को बनाये रखें ताकि भविष्य में भी सुन्दर परम्परा बने. अपने आचार को वल्लभसूरिजी महाराज की तरह बनाये रखे तभी हम उन्हें सही अर्थों में श्रद्धांजलि दे सकेंगे. धर्म प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन - दान परमात्मा ने केवल ज्ञान प्राप्ति के वाद साढ़े बारह वर्ष की घोर तपस्या के बाद जब सर्वज्ञ का पद प्राप्त किया तो सर्वप्रथम चार प्रकार से परमात्मा ने धर्म प्राप्ति का मार्ग बताया. पहला दान उसके बाद शील, तीसरा - तप और चौथा - भावना. सम्राट भोज बहुत दानेश्वरी थे. प्रतिदिन आने वाले विद्वानों का सम्मान करते और उचित For Private And Personal Use Only
SR No.008716
Book TitleJivan Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1995
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size7 MB
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