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________________ ८८ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ का झरना कल-कल करता प्रवाहित है । सुषमा में अनुरक्त मन को उसने मोड़ा और सोचा कि वह पूर्व भव की पत्नी, उसके साथ पूर्व भव का रनेह-सम्बन्ध, परन्तु वह काम का क्या? मैं कितने समय तक उसे साथ रख सकता था? किसलिए चित्त को उसमें उलझा कर दुःखी होऊँ? मन! सुपमा में से हट जा, नेत्रो! सुषमा से दूर हो जाओ और इन्द्रियो! शान्त बन कर सब भूल जाओ। यह देह मैं नहीं हूँ। मैं भीतर का तत्त्व हूँ। देह के और मेरे क्या सम्बन्ध? यह विवेक-पद मुनि भगवन द्वारा प्रदत्त मैं क्यों भूल रहा हूँ, भगवन्? भले मेरी देह चलनी जैसी हो जाये, मेरे अवयव नप्ट हो जायें, परन्तु अब मैं आप द्वारा प्रदत्त उपशम, संवर, विवेक की त्रिपदी को नहीं भूलूँगा। चिलाती की जर्जर वनी देह अल्प समय में ही नष्ट हो गई और उसकी आत्मा इस त्रिपदी की भावना में स्वर्ग गई। लुटेरा, हत्यारा एवं महापापी चिलाती मुनि की त्रिपदी का चिन्तन करता हुआ, मुनि, संयमी, त्यागी और सन्त वनकर जगत को ध्यान का आदर्श प्रदान करता हुआ काल के पटल में अदृश्य हो गया (योगशास्त्र से)
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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