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________________ शुद्ध आहार गवेषणा अर्थात् दंढण मुनि के लिए द्वारिका में गये हैं ।' 'भगवन्! इतनी विशाल द्वारिका में सबको निर्दोष आहार प्राप्त होता है और उन्हें क्यों नहीं प्राप्त होता ?' ૨ 'राजन् ! पूर्व भव में उन्होंने आहार का अन्तराय किया था, जिससे इस भव में उन्हें आहार का अन्तराय होता है । अन्य मुनियों को अन्तराय नहीं है जिससे उन्हें प्राप्त होता है। कर्म की सत्ता अटल एवं अटूट है । ' 'कृष्ण! ये ढंढण पूर्व भव में पाँच सौ कृपकों का अधिकारी था । जव कृपकों के भोजन करने का समय होता तव वह प्रत्येक को एक एक अधिक क्यारी में हल चलवा कर छोड़ता । कृषक निःश्वास छोड़ते हुए हल चलाते, परन्तु उनका जी तो भोजन में रहता । समय व्यतीत हुआ और वह अधिकारी जन्म लेता-लेता तेरे यहाँ उत्पन्न हुआ, परन्तु कृपकों को किया गया अन्तराय अब उसके उदय में आया है। इस कारण से सबको निर्दोष आहार प्राप्त होता है परन्तु उसे प्राप्त नहीं होता। उसमें उसका अन्तराय कर्म कारण है। कर्म तो सबके उदय में आते हैं, परन्तु ढंढण का पुरुषार्थ अद्भुत है । वह नित्य भिक्षार्थ जाता है और निर्दोष आहार नहीं प्राप्त होने पर तनिक भी ग्लानि न करता हुआ उपवास पर उपवास करता है और अन्य मुनियों द्वारा लाये हुए निर्दोष आहार को वह ग्रहण नहीं करता । वह तो कहता है कि 'मेरा अन्तराच टूटेगा और मुझे निर्दोष आहार प्राप्त होगा तब ही आहार ग्रहण करूँगा ।' (२) श्री कृष्ण हाथी पर सवार होकर द्वारिका के राजमार्ग में से निकले और उन्होंने सामने आते एक तप-कृश मुनि को देखा । प्रारम्भ में तो वे मुनि को नहीं पहचान सके, परन्तु निकट आने पर ढंढण मुनि को पहचाना। कृष्ण तुरन्त हाथी से नीचे उतरे। मुनि की तीन प्रदक्षिणा की और बंदन करके वोले, 'भगवन्! आपके दर्शन मेरे परम सौभाग्य के सूचक है' परन्तु मुनि मौन रहे और आगे बढ़ गये । कृष्ण पुनः पुनः उनके तप का अनुमोदन करते हुए आगे चले और मुनि भी आगे बढ़ते गये। वहाँ एक वणिक् ने कृष्ण द्वारा वन्दन किये जाते ढंढण मुनि को देख कर अत्यन्त सम्मान पूर्वक उन्हें मोदकों (लड्डूओं) की भिक्षा प्रदान की । मुनि ने बराबर आहार की गवेषणा की और आहार को निर्दोष मानकर उसे लेकर भगवान के पास आये । ढंढण ने भगवान को आहार बताते हुए कहा, 'भगवन्! बहुत दिनों के पश्चात् आज मुझे निर्दोष आहार प्राप्त हुआ है, मेरा अन्तराय कर्म अब अवश्य क्षय हुआ है।' 'ढंढण! यह आहार तुमको अन्तराय क्षय होने से प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु कृष्ण के
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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