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________________ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ __'विद्वद्वर्य! ऐसा मत कहो। मेरा पुत्र है यह मत सोचो। किसी अन्य का पुत्र हाता तो आप दण्ड देने का कहते अथवा नहीं? शास्त्र क्या कहता है वह विचार करो।' विद्वान मौन रहे । वे एक दूसरे के मुँह ताकने लगे राजा अधिक गम्भीर होकर बोला, 'आप रमृतियों का पाठ स्मरण करो। उसमें उल्लेख है कि - ‘राजपुत्र का अपराध हो तो भी दण्ड दे ।' विद्वानों ने कहा, 'महाराज! वात सत्य है परन्तु...' __'परन्तु नहीं, न्याय एक ही होता है | सभी मनुष्य समान हैं। आप तो उत्तर दो कि अपराध का दण्ड क्या?' 'राजन! हम यहाँ क्या कहें? आप ही सोचें।' 'देखो तब, मैं तो विचार करता हूँ कि राजकुमार ने बछडे पर अश्व चलाया, तो मैं राजकुमार को मार्ग में सुलाकर उस पर अश्व चलाने की आज्ञा देता हूँ ।' मंत्रियों, विद्वानों एवं राज्यसभा में स्थित अन्य सभी लोगों ने कानों पर हाथ रखे और उनके नेत्रों में आँसू आ गये। 'सेवको! जाओ, राजकुमार को जहाँ बछड़ा मर गया था वहाँ सुलाओ और अश्व दौडाते हुए उसके पेट के ऊपर से ले जाओ ।' सेवक स्तब्ध रह गये । राजा ने दूसरी बार, तीसरी वार आदेश दिया परन्तु इस कार्य को करने के लिए कोई आगे नहीं आया। राजा स्वयं अश्व पर सवार हुआ और अश्व दौडाते हुए राजमार्ग पर लेटे हुए राजकुमार के ऊपर अश्व चलाया । इतने में आकाश में से पुष्प-वृष्टि हुई ओर ध्वनि आई, 'धन्य यशोवर्मा! धन्य तेरा न्याय! न तो यह गाय है और न वछडा। यह तो राज्य-कुलदेवी ने गाय एवं बछडे के द्वारा तेरे न्याय की परीक्षा की है।' (उपदेश सप्ततिका से) poan DADAR - A ----- mara. हरिशोमारा। राजा स्वयं अश्वारुद्ध होकर अध दांडाता हुआ राजमार्ग पर लेटे हुए राजकुमार के उपर अध चलाया.
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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