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________________ सचित्र जैन कथासागर भाग ६४ अनुमति प्राप्त कर पुनः संयम अङ्गीकार कर बिहार के लिये प्रस्थित हुए । " १ (19) पिता के पाँच सौ रक्षकों से उनका पुनः मिलाप हुआ । कुमार को पहचान कर उन्होंने कहा, 'कुमार! आज तक आप कहाँ चले गये थे ? हमने आपकी अत्यन्त खोज की। आपका पता न लगने के कारण हम जहाँ तहाँ भटक कर चोरी करके जीवन व्यतीत करते रहे ।' चोरों को आर्द्रकुमार ने प्रतिबोध दिया और उन्हें शिष्य बनाया। भगवान महावीर के आगमन के समाचार सुनकर पाँच सौ शिष्यों सहित आर्द्रमुनि उनके बन्दनार्थ गये। मार्ग में गोशाला के साथ उनका वाद-विवाद हुआ। गोशाला ने आर्द्र मुनि को कहा, 'महानुभाव! पहले के वर्द्धमान महावीर भिन्न थे और ये महावीर भिन्न हैं । वे महावीर तो त्यागी, तपस्वी, निष्परिग्रही थे और ये तो सोने एवं हीरों के गढ़ों में बैठ कर मान-सम्मान स्वीकार करने वाले अन्य हैं।' I 'गोशालक ! छद्मस्थ महावीर को कर्मों का नाश करने के लिए उपसर्ग सहन करने पड़ते थे और उनके छद्मस्थ से वीतराग बनने पर तीर्थंकर नामकर्म के कारण उन्हें इस ऋद्धि का उपभोग करना पड़ता है। महावीर तो वे और ये एक ही हैं।' आर्द्र मुनि आगे चले और राजगृह के समीप तापसों के एक आश्रम के निकट आये। ये तापस हस्ति तापसों के नाम से प्रसिद्ध थे। उनकी मान्यता थी कि जीवन-व्यवहार हरि सोमपुरा 'पिताजी! अब आप कैसे जाओगे?' आर्द्र कुमार को कच्चे सूत का डोरा लपेटते हुए बालक बोला.
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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