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________________ ६२ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ देती हैं, उसी प्रकार श्रीमती को यह बात सामान्य प्रतीत नहीं हुई । उसने निश्चय कर लिया कि जिसको मैंने सबके समक्ष कह दिया कि, 'यह मेरा पति', वही अब मेरा पति होगा। __ मुनि ने विहार कर लिया और अब आकाशवाणी की घोषणा - 'संयम में अभी समय है' वह उनके हृदय में गूंजने लगी। क्या मैं संयम से पुनः च्युत होऊँगा? क्या मैं निर्वल वन कर पुनः अपना अधःपतन करूँगा? नहीं-नहीं, यह कदापि नहीं होगा।' उन्होंने कठोरता पूर्वक दमन प्रारम्भ किया और कठोर तप प्रारम्भ किया। श्रीमती के पिता एक धनी सेठ थे । वह सुलक्षणी एवं रूप-लावण्य की सजीव प्रतिमा थी। अनेक श्रेष्ठियों की ओर से माँग आई, परन्तु श्रीमती ने तो पिता को कह दिया कि 'पिताजी, मुँह से वोल कर मैंने जिसको पति मान लिया वही मेरा पति है और इस भव में तो मुनि के अतिरिक्त अन्य के साथ मैं विवाह नही करूँगी।' पिता ने कहा, 'पुत्री! ये तो मुनि हैं, कंचन-कामिनी के त्यागी।' 'पिताजी, आप ठीक कहते हैं, परन्तु मुझे उनके अतिरिक्त कोई विचार ही नहीं सुझता।' ‘पुत्री! यदि वे पुनः यहाँ आ जायें तो तू उन्हें थोड़े ही पहचान सकेगी?' 'पिताजी! मैं अवश्य ही पहचान सकूँगी। उनके पाँव में पद्म था जिसे मैंने अच्छी तरह निहारा था । पाँच अथवा हाथ की रेखाएं सभी के हाथ में होती हैं, परन्तु किसी SK AN MMAR . . . .) हरिसोमपुर सहेलियों के साथ 'यह मेरा पति' खेल खेलती हुई श्रीमती ने कायोत्सर्ग में स्थिर आई मुनि के चरण पकड लिए.
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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