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________________ सचित्र जैन कथासागर भाग ६० बनाते हैं । विपयी व्यक्ति को न हित-अहित का भान होता है और न ही समझ होती है? मैं उन्हें जो कहूँगी वह सब राख में घी डालने के समान है। शुष्क राख घी डालने से चिकनी नहीं बनती, उसी प्रकार संयम से च्युत एवं विपयासक्त वे मेरे वचनों से सही राह पर नहीं आयेंगे। मेरा दर्शन ही उनके त्याग में अन्तराय रूप सिद्ध हुआ । मैं सदा के लिए किस प्रकार उनकी आदर्श बनूँ? मैं जहाँ जाऊँगी वहाँ भौंरा जिस प्रकार पुष्प के पीछे घूमता है उसी प्रकार वे मेरे पीछे घूमते रहेंगे। वे स्वयं अपनी अपकीर्ति करेंगे, मेरी अपकीर्त्ति करेंगे और जैनशासन की अपकीर्ति करेंगे। क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ? इन सब विचारों में घिरी हुई बन्धुमती साध्वी ने अनशन करके देह त्याग दी। बन्धुमती साध्वी परलोक गमन कर गई और वह भी केवल मेरे लिए यह बात मैं (सामयिक) ने सुनी तो ज्यों दुर्गन्ध से भूत भागता है त्यां मेरे हृदय से काम-वासना लुप्त हो गई। मेरी देह थर-थर काँपने लगी, 'अरे! मुझ पापी ने बन्धुमती के प्राण लिये और उसने मेरी संयम - रक्षा के लिए अपने प्राण दे दिये।' - - १ 'वन्धुमती ! तूने सच्चे सती- व्रत का पालन किया। सती नारियाँ मृत पति के पीछे मरती हैं परन्तु तूने तो संयम से मृत मेरे पीछे प्राण देकर मुझे जीवित किया; परन्तु बन्धुमती ! तेरे जैसी साध्वी की हत्या कराने वाला मैं कब मुक्त होऊँगा? मैं महापापी हूँ! क्रूर हूँ! साध्वी का हत्यारा हूँ !" मैंने संयम की विराधना की थी। उसके प्रायश्चित स्वरूप अन्न-जल का त्याग किया फिर भी संयम की विराधना के कारण मैं मर कर अनार्य देश में उत्पन्न हुआ।' (४) तत्पश्चात् आर्द्रकुमार ने प्रतिमा की पूजा की और पुनः संयम ग्रहण करके कल्याण करने का संकल्प किया। आर्द्रकुमार का हृदय परिवर्तन हो गया, हाव-भाव में परिवर्तन हो गया और जीवन व्यवहार में परिवर्तन हो गया । वह भारत-भूमि में अभयकुमार को मिलने के लिए लालायित हुआ | उसने पिताजी को कहा, 'पिताजी! आपके मित्र श्रेणिक हैं उसी प्रकार मेरे मित्र अभयकुमार हैं। उनसे मिलने की मेरी उत्कट अभिलापा है। मुझे एक बार भारत जाने की आप अनुज्ञा प्रदान करें ।' राजा ने कहा, 'वत्स, तू जानता है कि तू हमारा इकलौता पुत्र है । मैं तुझे अपने से दूर नहीं कर सकता। तू यहाँ रहकर परस्पर उपहार भेज कर अपने प्रेम में वृद्धि कर | चन्द्रमा एवं सागर भिन्न हैं फिर भी उनका प्रेम कैसा निर्मल है ? प्रेम की निर्मलता के लिए पास ही रहना ऐसा कोई नियम नहीं है ।' उनकी यह बात आर्द्रकुमार को अच्छी नहीं लगी यह राजा समझ गया, परन्तु पुत्र
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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