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________________ ५८ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ चाहिये और सच्चा हित किसी को धर्म में प्रेरित करना ही है। उसने उपहार स्वरूप भेजने के लिये विभिन्न वस्तुओं के विषय में अनेक विचार किये, परन्तु उन सबको अलग छोड़ कर वीतराग परमात्मा की एक सुन्दर प्रतिमा बना कर एक सुन्दर मंजूषा में बन्द करके मन्त्री को दी, जो पुनः पिता के उपहार देने के लिये आर्द्रक देश जा रहे थे उन्हें मंजुषा सौंपते हुए यह भी कहा, 'आर्द्रकुमार को कहना कि वे इस उपहार को गुप्त रूप से देखें ।' श्रेणिक के मंत्री पुनः आर्द्रक देश गये । उन्होंने श्रेणिक महाराज का उपहार आर्द्रक राजा को दिया और अभयकुमार की मंजूषा आर्द्र कुमार को देते हुए कहा कि, आपके मित्र ने आपके लिये जो उपहार मंजुषा में बंद करके भेजा है उसे गुप्त रूप से खोलकर देखने का कहा है।' आर्द्रकुमार अपने निवास पर आया, द्वार बन्द किया और मंजूषा खोलने से पूर्व उसने अनेक तर्क-वितर्क किये, - ‘मंजुषा में ऐसा क्या होगा कि मित्र ने गुप्त रूप से देखने को कहा? क्या भारत के ऋषि-मुनि की कोई अप्राप्य प्रसादी होगी? अथवा भारत समृद्ध देश गिना जाता है तो उसका कोई अमूल्य अलंकार अथवा कोई सुन्दर फल होगा जो अन्य किसी को प्रदान नहीं किया जा सकता और कोई उसे देख न सके और उसके विषय में जान न सके इसलिए इस प्रकार भेजकर गुप्त रूप से देखने के लिए कहा।' उसने मंजूषा खोली तो भीतर से भगवान की जगमग करती प्रतिमा निकली | प्रतिमा HAMSTEM न Bio MUS MARRUARATI m Jaithunila हरिसीमा आदकुमार ने मंजूषा खोली तो भीतर से भगवान की जगमगाती प्रतिमा निकली.
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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