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________________ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ निकलता तो मन मसोस कर पछाड़ें खाती है। एक वार अरणिक एवं भामिनी झरोखे में आनन्द से बैंठे थे, तव लोगों के समूहों के साथ 'अरणिक! अरणिक!' करती हुई साध्वी को अरणिक ने देखा । उसकी आँख स्थिर होने पर और पल भर में शोक-मग्न होने पर भामिनी ने उसे कहा, 'चलो भीतर, इसमें क्या देखना है?' अरणिक की दृष्टि स्थिर हो गई माता को पहचानते ही वह तुरन्त सीढियों से नीचे उतर गया | भामिनी उसके पीछे दौड़ी, 'कहाँ जा रहे हो? कहाँ जा रहे हो?' कहती रही और अरणिक नंगे पैर, नंगे सिर समूह के मध्य चिल्लाती हुई, लोगों की दृष्टि में पागल गिनी जाने वाली साध्वी के चरणों में जा गिरा और कहने लगा, ये रहा माता! मैं तुम्हारे कुल को कलंकित करने वाला, कुल को लज्जित करने वाला, संयम-भ्रष्ट होने वाला पापी अरणिक!' 'पुत्र! यह तूने क्या किया?' 'पूज्य आर्य! मैंने कुछ नहीं किया, पापी विषय-वासना ने मुझे भ्रष्ट किया है । वासना से मेरा भान लुप्त हो गया, कुल की मर्यादा भूला दी और मैं अन्धा वन गया । तुम्हारे सामने खड़े रहने में भी मुझे लज्जा आ रही है।' 'वत्स! चारित्र-भ्रष्ट होना तेरे लिए उचित नहीं है।' वह चारित्र जो शिव-सुख का सार है। तू उपाश्रय में चल और पुनः संयम प्रहण VEOS AM RE हरिसीमापुरा ये रहा माता! मैं तुम्हारे कुल को कलंकित करने वाला, कुल को लज्जित करने वाला संयम भ्रष्ट होने वाला पापी अरणिक!
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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