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________________ पुण्य, पाप, संयोग अर्थात् पुण्याढ्य राजा की कथा पदमपुर नगर में तपन नामक राजा राज्य करता था । राजा जब राज्यसभा में बैठा था, तव किसी ने उसे समाचार दिये कि 'राजन्! धनावह व्यापारी एक सुन्दर हाथी लेकर आपके पास आ रहा है।' राजा स्वागतार्थ आया । उसने व्यापारी एवं हाधी का आदर-सत्कार किया और बोला, 'श्रेष्ठिवर! मेरे भाग्य के द्वार आप हैं मैं आपको किस प्रकार प्रसन्न करूँ? इस पर राजा के विनम्र व्यवहार से अति प्रसन्न होकर व्यापारी ने वह हाथी राजा को उपहार में प्रदान कर दिया । कृतज्ञता प्रकट करते हुए राजा ने कहा - वास्तव में आपने मुझे यह हाथी नहीं दिया बल्कि यह हाथी प्रदान करके आपने मुझे 'राजाधिराज' पद प्रदान किया है, क्योंकि उसके आगमन से मैं जिन राज्यों का अधिष्ठाता बनूँगा उन सबमें प्रताप आपका ही गिना जायेगा।' इस प्रकार राजा ने कृतज्ञता बताते हुए कहा और अपने राज्य की आधी सीमा श्रेष्ठी को सौंप दी, जिससे धनावह श्रेष्ठी से राजा बन गया। तपन राजा ने शुभ मुहूर्त में विजय-यात्रा के लिए प्रयाण किया । राजा ने हाथी, अश्व, रथ, प्यादों का दल आदि सब सैन्य लिया, परन्तु यह सब तो शोभा मात्र थी वास्तविक महत्व गजराज का ही था। हाथी ही एक के पश्चात् एक राज्य दिलाता हुआ आगे बढ़ता गया। जिस किसी ने भी सामना किया अकेला हस्तिराज ही उसे चमत्कार दिखा कर झुकाता रहा। देखते ही देखते तपन राजा ने समस्त राज्य अपने अधीन कर लिये और सेना के • साथ पद्मपुर लौट आया। राजद्वार पर आते ही हाथी ने अचानक इधर-उधर सैंड घुमाई । एक दुकान से खडिया' लेकर राजद्वार में प्रवेश करते समय लिखा'अविज्ञातत्रयीतत्त्वो, मिथ्याचमाउत्फुल्लमहिभुजः। हा! मुढः शत्रुपोषेण, मित्रप्लोषेण हृष्यति ।।१।। राजा ने श्लोक का अर्थ समझना चाहा परन्तु उसे समझ में नहीं आया कि कौन से मित्रों को मैं जला रहा हूँ, कौन से शत्रुओं का मैं पोषण कर रहा हूँ? राज्य के पण्डितों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से श्लोक के भिन्न-भिन्न अर्थ किये परन्तु राजा
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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