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________________ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ कठोर तप एवं घोर पश्चाताप से कृश वनी साध्वी सुनन्दा को गुरूवर्याश्री को आज्ञा में रह कर उत्तम चारित्र का पालन करते-करते अवधिज्ञान हुआ। __ एक बार सुनन्दा साध्वी ने गुरूवर्याश्री को कहा, “महाराज! आप आज्ञा प्रदान करें तो मेरे निमित्त जिसने सात भवों तक कष्ट सहन किये हैं उस रूपसेन के जीव हाथी को प्रतिबोध देने के लिए मैं जाना चाहती हूँ। 'आर्य! तू ज्ञानी है । यदि उसमें तुझे लाभ प्रतीत होता हो तो मेरी आज्ञा ही है | कोई भी जीव आराधक बने यह तो हम चाहते ही हैं ।' गुरूवर्याश्री की आज्ञा शिरोधार्य करके साध्वी सुनन्दा चार अन्य साध्वियों के साथ सुग्राम आई और वहाँ वसति की याचना करके चातुर्मास के लिए रही। _ 'महाराज! आप गाँव के वाहर कहाँ जा रही हैं ? वृक्षों को उखाड़ता हुआ और मार्ग में जो आये उसे नष्ट करता हुआ उन्मत्त हाथी गाँव के जंगल में ही है | आप उपाश्रय में लौट जाओ' - इस प्रकार हाँफते हुए लोगों के समूह ने गाँव के बाहर जाती सुनन्दा साध्वी को कहा, फिर भी वह तो तनिक भी घवराये विना सीधी आगे बढ़ी । पुनः लोगों के समूह ने उन्हें आवाज दी, 'महाराज! आप आगे न बढ़ें | पागल एवं उन्मत्त हाथी जिसे देखता है उसे मार डालता है।' मिट्टी उड़ाता हुआ, शाखाएं तोड़ता हुआ और जो मार्ग में आये उसे नष्ट करता हुआ हाथी लोगों ने दूर से देखा तो कोई छप्पर पर तो कोई गढ़ पर चढ़ कर थरथर काँपने लगा। दौडो, भागो चिल्लाने लगा। इतने में हाथी साध्वी की ओर झपटा | लोगों ने चीख मचाई, परन्तु साध्वी की ओर देखते ही उसके नेत्र मोहवश हो गये और वह हाथी उनके चारों ओर घूमने लगा। साध्वी ने गम्भीर स्वर में कहा, 'रूपसंन! समझ-समझ, मेरे प्रति तु मोह क्यों कम नहीं कर रहा है? तू रूपसेन था, फिर मेरे गर्भ में आया, साँप-कौआ-हंस और हिरन का भव करके इस सातवे भव में तू हाथी हुआ है । अनर्थदण्ड से तू क्यो परेशान हो रहा है? स्नेह-बंध तोड़ कर दु:खों से बच ।' हाथी असमंजस में पड़ा । उसे जातिम्मरण ज्ञान हुआ। उसके नेत्रों में अश्रु छलक आयं । सातों भव उसकी दृष्टि के समक्ष स्पष्ट दृष्टिगोचर हुए | वह पश्चाताप करता हुआ सोचने लगा, 'अरे! मैं भूल गया । सात भवों तक मोह में डूवा रहा, मोहान्ध बना रहा । ये मोह में इवी, तैर गई और मुझे भी तारा ।' तूंड के द्वारा नमस्कार करके हाथी साध्वो को वन्दन करने लगा और गुरूवर्याश्री! मेरा उद्रार करो' कहता हुआ आँखों
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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