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________________ १५ सनत्कुमार चक्रवर्ती कुमारियों से उसका साक्षात्कार हुआ। ये उस पर मुग्ध हो गईं। इस प्रकार वह राजकुमार एक वर्ष तक इधर-उधर भटकता रहा और उसने सुनन्दा, वन्ध्यावली, चन्द्रयशा आदि अनेक विद्याधर कुमारियों के साथ विवाह किया और उसने अनेक विद्याधरों के राज्य प्राप्त किये। महेन्द्रसिंह ने खोज करते-करते वर्ष के अन्त में किसी एक उपवन में सन्नारियों के साथ आनन्द मनाते हुए सनत्कुमार को ढूंढ निकाला । सनत्कुमार उसे ऋद्धि-सिद्धि दिखाने के लिए वैताढ्य नगरों में ले जा रहा था, परन्तु महेन्द्रसिंह ने कहा, 'मित्र! तेरे विरह में तेरे माता-पिता तड़प रहे हैं, रुदन कर रहे हैं ।' सनत्कुमार तुरन्त हस्तिनापुर आया, पिता-पुत्र का मिलाप हुआ, उन्होंने परस्पर आलिंगन किया और पिता ने सनत्कुमार को राज्य सौंप कर दीक्षा अंगीकार की और आत्मकल्याण किया। क्रमश: सनत्कुमार को चौदह महा रत्न प्राप्त हुए। चक्ररत्न का अनुसरण करके उसने भरत क्षेत्र के छः खण्डों पर विजय प्राप्त की और नैसर्प आदि नौ निधियाँ प्राप्त की। राजाओं ने चक्रवर्ती का अभिषेक किया | नगर में वारह वर्ष तक उत्सव मनाया जाता रहा और सर्वत्र आनन्द मंगल छाया। एक बार सौधर्मेन्द्र अपनी सभा में बैठे थे, तब वहाँ ईशानवासी संगम देव आ पहुँचा । इन्द्र के साथ अपना कार्य पूर्ण करने के पश्चात जव वह देव चला गया, तव अन्य देवों ने इन्द्र से पूछा, 'इस देव की इतनी अधिक कान्ति क्यों है?' सौधर्मेन्द्र ने कहा, 'इसने पूर्व में वर्द्धमान तप किया है, इस कारण इसका ऐसा रूप है।' पुनः देवों ने पूछा, 'इसके समान कान्तिवाला कोई अन्य पुरुष भी है?' इन्द्र ने सनत्कुमार के रूप-सौंदर्य की प्रशंसा करते हुए कहा, 'सनत्कुमार के समान रूप अथवा कान्ति किसी अन्य देव अथवा मनुष्य में नहीं है।' इन्द्र के यो वचन सुनकर विजय एवं वैजयन्त नामक, दो देव ब्राह्मणों का रूप धारण करके सनत्कुमार को देखने के लिये आये | उस समय सनत्कुमार स्नान करने की तैयारी कर रहे थे। उनका रूप देखकर उन्होंने सिर हिलाया और मन ही मन में कहा, इन्द्र कह रहे थे वैसा ही इनका रूप और वैसी ही इनकी कान्ति है। सनत्कुमार ने ब्राह्मणों को कहा, 'यदि मेरा वास्तविक रूप देखना चाहो तो मुझे राज्यसभा में देखना, क्योंकि उस समय मेरा शरीर कमनीय वस्त्रों और रत्नजटित आभूषणों से सुसज्जित होने के कारण और अधिक कान्तिमान दिखेगा ।' ब्राह्मणों ने कहा - 'अच्छा' और वे राज्यसभा में आये । उन्होंने सनत्कुमार को देखा
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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