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________________ सचित्र जैन कथासागर भाग संयोग-वियोग का विचार करते नमिराजर्षि ने राज्यसिंहासन छोड़ दिया और प्रत्येक बुद्ध बन कर संयम ग्रहण किया । १५० - १ (५) मिराजर्षि की दीक्षा के समय इन्द्र की इच्छा उनके मन की परीक्षा करने की हुई । उन्होंने ब्राह्मण का रूप धारण करके नमिराजर्षि को मिथिला जलती हुई बता कर कहा, 'राजन्! मिथिला की ओर दृष्टि डालो, आपका अन्तःपुर जल रहा है, प्रजा कोलाहल कर रही है । ' राजा ने शान्तचित्त होकर उत्तर दिया, 'विप्र ! मेरा कुछ नहीं जल रहा । गेरे पत्नी नहीं है. पुत्र नहीं है, परिवार नहीं है । मेरा कोई प्रिय नहीं है अथवा अप्रिय नहीं है । अतः मिथिला जलने पर भी मेरा कुछ नहीं जल रहा । ' राजर्षि एवं विप्र के रूप में आये इन्द्र का यह वार्त्तालाप (संवाद) उत्तराध्ययन में मिराजर्षि की संयोग त्याग रूप एकत्व भावना एवं वैराग्य की अखण्ड ज्योति प्रज्वलित करके उनके जीवन को प्रकाशमय कर रहा है । सुच्चा बहूण सद्धं चलयाणमसद्धं च एगस्स । बुद्धो विदेहसामी सक्केण परिक्खिओ अ नमी । । चन्दन घिसते समय अनेक स्त्रियों के कड़गना की ध्वनि सुनकर तथा एक कन मिराजा विप्र ! मेरा कुछ नहीं जल रहा। मेरे पत्नि नहीं है, पुत्र नहीं है, परिवार नहीं है। मेरा कोई प्रिय-अप्रिय नहीं है। अतः मिथिला जलने पर भी मेरा कुछ नहीं जल रहा. Aromatic doulanchitaitan
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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