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________________ १४८ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ उस समय उनके नेत्र क्रोध से लाल थे। उनकी देह में क्रांध समाता नहीं था । बार-बार खड़े होकर 'कहाँ गया मणिरथ' कह कर वे दौड़ने का प्रयास करते थे । सती मदनरेखा ने मृत्यु-शय्या पर सोये पति को आश्वासन दिया और कहा, 'स्वामी! क्रोध मत करो। भाई, पिता, माता सब स्वार्थ के सगे हैं । आप अपना आत्म-कल्याण करो । सबार क्षमा याचना करो, देव-गुरु-धर्म का शरण स्वीकार करो । आप मणिरथ को शत्रु मत समझा । कर्मवश होश-भूले हुए उस पर दया लाओ।' यह कहती हुई मदनरेखा के समक्ष फटी आँखों से युगवाह ने देखा । उसने उसकी गोद में सिर रखा और पलभर में देह का परित्याग कर दिया । मदनरेखा कुछ समय तक रुदन करती रही परन्तु उसे तुरन्त विचार आया कि मणिरथ ने मेरे पति की हत्या मेरे रूप एवं मेरी देह के लिए की है । उसे मेरी देह के साथ खेलने का भूत सवार हुआ है । मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मणिरथ के राज्य में मेरा कौन रक्षक है? उसने अपने आँसू पोंछे । पति की देह गोद में से नीचे रखी। सती ने पति के चरणा का स्पर्श किया और लता मण्डप को छोड़ कर वह भागी। उसने न देखा मार्ग और न दखा कुमार्ग, उसने नहीं गिना भय वाघ, भेडियं अथवा साँप का। भागत-भागते प्रातःकाल हुआ और वह विश्राम लेने के लिए एक वृक्ष के नीचे बैठी । श्रम एवं भय के कारण उसकी देह काँप रही थी, चिन्ता एवं पति-शोक के कारण उसका मन उद्विग्न था । कुछ समय के पश्चात् उसके पेट में असह्य वेदना हुई और उसी वृक्ष के नीचे मदनरेखा ने पुत्र को जन्म दिया। राजन! राज्य के उत्तराधिकारी युवराज युगबाह की अनाथ बनी पत्नी मदनरेखा इस नवजात शिशु को स्वच्छ करने के लिए समीपस्थ सरोवर पर गई । ज्योंही सरोवर में पाँव रखकर वह पुत्र को स्वच्छ कर रही थी कि जलहस्ति ने उसे उठा कर आकाश में फैंक दिया । बालक तट पर जा गिरा । सती को आकाश में से ही एक विद्याधर ने पकड़ लिया । सती को पकड़ते समय तो उसके हृदय में दया का अंकुर था, परन्तु जब उसने उसका चेहरा देखा तो उसके मन में विकार आ गया और वह बोला, 'देवी! मैं मणिप्रभ नामक विद्याधर हूँ। मैं जा तो रहा था चतुर्ज्ञानी मणिचूड़ चारण ऋषि की बन्दनार्थ, परन्तु अब मैं तुझे लेकर अपनी नगरी को लौटूंगा।' सती उसके मन के हावभाव समझ कर बोली. 'किस लिए? चलो चारण मुनि के पास चलें, फिर नारी की ओर, इसमें क्या बाधा?' विद्याधर रुका । वह मदनरेखा को लेकर चारण मुनि के पास आया । मुनि ने विषय-विकारों की भयंकरता से सम्बन्धित देशना दी | मणिप्रभ विद्याधर प्रतिबोधित हुआ। वह मदनरेखा की ओर उन्मुख होकर बोला, 'सती, तू मेरी वहन है। मेरी ओर से तनिक भी भयभीत मत होना ।' 'राजन्! उसका मोह भंग हुआ। उसने स्वदारा सन्ताप व्रत ग्रहण किया।
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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