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________________ १३४ सचित्र जैन कथासागर भाग - १ के द्वारा अञ्जना के आगमन के समाचार उसके पिता को पहुँचाया । अञ्जना के गर्भवती होने की दशा जान कर पिता गहन विचार में पड़ गये और कलंकिनी पुत्री को घर में आश्रय देना उचित है अथवा नहीं - इस प्रश्न में ही उनकी बुद्धि चक्कर ख़ाने लगी। इतने में उनका पुत्र प्रसन्नकीर्ति आया और पिता ने उस समरत वृत्तान्त से अवगत करा दिया। तुरन्त प्रसन्नकीर्ति ने अञ्जना को तिरस्कृत करते हुए कहा, 'जा दुष्टा! चली जा, तेरे समान कलंकिनी के लिए इस घर में कोई स्थान नहीं है।' राजा के एक बुद्धिमान एवं चिन्तक मंत्री ने राजा को निवेदन किया, 'आपका इस प्रकार क्रोधित होना उचित नहीं है । उस पर लगाया जाने वाला कलंक सत्य है अथवा असत्य, इसका भी आपको पता नहीं है, तो फिर आप किस आधार पर उसे कुलटा कह रहे हैं? चाहे जैसी हो फिर भी आप उसके पिता हैं, वह आपकी पुत्री है। सन्तान कुपात्र बन सकती है परन्तु माता-पिता कुत्सित नहीं होते - इस कहावत के अनुसार आपको उदार मन से इसे आश्रय देना ही चाहिये ।' राजा के मन पर मंत्री के उन वचनों का कोई प्रभाव नहीं हुआ । राजा वोला, 'आपका कथन चाहे जितना यथार्थ हो तव भी मैं उसे मानने के लिये तैयार नहीं हूँ। मुझे प्रतीत होता है कि पवनंजय को अञ्जना के प्रति प्रारम्भ से ही प्रेम नहीं है। वह अञ्जना का तिरस्कार करता रहा है । उस स्थिति में अजना का गर्भवती होना सर्वथा असम्भव है । उसकी सास ने उसे निकाल दिया यह ठीक किया है । मैं भी उसे निकाल दूँगा | अब तो जंगल ही उसका आश्रय है।' __ अपने पिता के मुँह से यह अपमान-सुचक शब्द सुनकर विचारी अञ्जना के नेत्रों से अश्रु-धारा वहने लगी। उसने आँसुओं को रोकने का भरसक प्रयास किया, परन्तु वह आँसू रोक नहीं सकी। उसने अपने पिता को 'पिता' कहकर सम्बोधन करने का प्रयत्न किया परन्तु वे शब्द उसकी जीभ पर आने से पूर्व ही मर गये। दुःख की अवधि मानो शेष हो उस प्रकार प्रतिहारी ने अञ्जना का हाथ खींच कर द्वार से बाहर निकाल दिया ! चौधार आँसूओं से रोती निराधार अञ्जना अपनी प्रिय सखी वसन्ततिलका के साथ पुनः नगर से बाहर निकली।। लौट कर वह कहाँ जाती? ऊपर आकाश और नीचे धरती। उसे आश्रय देने वाला कौन था? मानव-मात्र उसका तिरस्कार कर रहा था। उसके टूटे दिल को सान्त्वना देने वाला कोई नहीं था। भूख-प्यास से सन्तप्त अञ्जना बड़वड़ाने लगी, 'हे कुल की प्रतिष्ठा की रक्षक सास! तुमने मुझ व्याभिचारिणी, कुलटा को घर से निकाल कर अपने कुल की प्रतिष्ठा अखण्ड
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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