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________________ सचित्र जैन कथासागर भाग १२० १ आपने मुझे ऐसा परामर्श दिया है? मैं राज-राजेश्वर हूँ। सब से महान् हूँ । मुझ से उच्च पद पर कोई नहीं है, ऐसा दवदवा मेरे समक्ष रखकर आपने मुझे पामर होते हुए भी महान् बना कर क्या मेरे साथ ठगी नहीं की? अथवा आप क्या करो? आप कहाँ त्यागी, निस्वार्थी अथवा विश्व पर उपकार करने का वेष धारण करने वाले हैं ? 'मेरा परिवार जिसमें राज्य को तिनके के समान समझ कर पिता ने दीक्षा अंगीकार की, दादा ने दीक्षा अंगीकार की, चाचा ने दीक्षा अंगीकार की और मैं ही एक पामर जो राज्य ऋद्धि के मद में मूर्छित बना रहा | इस प्रकार राजा कीर्त्तिधर के मानस पटल पर ऐसी ऐसी अनेक अपने पूर्वजों की स्मृतियाँ उभर आई । (२) साकेतपुर नगर में विजय राजा मेरे दादा और उनकी रानी हिमचूला मेरी दादी थी । उनके दो पुत्र थे एक वज्रबाहु जो मेरे ताऊ और दूसरे जो मेरे पिता पुरन्दर थे । वज्रबाहु का विवाह नागपुर के राजा दधिवाहन एवं रानी पुष्पचूला की देवाङ्गना तुल्य पुत्री सचमुच मनोरमा के समान मनोरमा के साथ हुआ था। कुछ दिनों के आतिथ्य के पश्चात् वज्रबाहु मनोरमा के साथ अपने नगर की ओर लौटने लगे। दधिवाहन ने उत्तम दहेज एवं श्रेष्ठ सेवक-परिवार प्रदान करके अपने पुत्र उदयसुन्दर को उन्हें पहुँचाने के लिए भेजा। जब हर्ष पूर्वक वज्रवाहु अपने नगर में लौट रहे थे तब वसन्त ऋतु आ गई थी। जंगल में सर्वत्र हरियाली छायी हुई थी और पुष्प मानो चाँदी के दाँतों से हँसते हुए वज्रबाहु, मनोरमा एवं उदयसुन्दर का आतिथ्य कर रहे हो । उस समय वज्रबाहु ने सुन्दर हरे-भरे मैदान में पड़ाव डाला। एक बार वसन्तोत्सव मना कर लौटते समय वज्रवाहु की दृष्टि एक वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग ध्यानस्थ खड़े मुनि पर पड़ी । घड़ी भर में राग-रंग में प्रमुदित कुमार तुरन्त विचार-मग्न हो गया। वह मुनि के समीप गया और उनको वन्दन करके उन्हे टक टकी लगाकर देखता रहा । उदयसुन्दर एवं मनोरमा भी साथ थे। उन्होंने मुनि को वन्दन किया और पड़ाव पर जाने के लिए तत्पर हुए। उदयसुन्दर ने वज्रबाहु को कहा, 'चलो आश्रम में, घूर घूर कर मुनि के सामने क्या देख रहे हो ? क्या तुम्हें ऐसे मुनि वनना है ? बनना हो तो मुझे कहना । मैं भी तुम्हारा साथी बनूँगा । इसी समय विना विलम्व के आज्ञा प्रदान कर दूंगा । 'अरे भले आदमी! संसार में ऐसे महापुरुषों के दर्शन की अपेक्षा अन्य क्या अधिक सुन्दर 'है? मुनीश्वर बनना कोई छोटे बच्चों का खेल है ? उसके पीछे तो पुरुषार्थ एवं परमभाग्य चाहिये।' इस प्रकार वज्रबाहु ने कहा । इतने में मुनि का कायोत्सर्ग पूर्ण हुआ और वे बोले, 'मानव-भव अत्यन्त दुर्लभ है ।
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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