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________________ वैयावच्च अर्थात् महामुनि नंदिषेण की कथा चाहता है?' 'महाराज! क्षमा करें। आपको कष्ट होता है उसमें मेरी असावधानी का दोष है।' तनिक चलने पर रोगी मुनि ने दुर्गन्ध मारती विष्टा से नंदिषेण की समस्त देह भर दी। नंदिषेण ने मुनि को न तो दूर किया अथवा न उनका तिरस्कार किया। वह वोला, 'महाराज बीमार हैं क्या करें? दंह का धर्म देह पूर्ण करे उसमें उनका क्या दोष?' ग्लान मुनि का सिर हिलने लगा और वे बोले, 'धन्य! धन्य! नंदिषेण! तेरी चैयावच्च की इन्द्र नं प्रशंसा की, वैसा ही तेरा परम वैयावच्च है। मेरा अपराध क्षमा कर ।' यह कह कर वह मुनि देव के रूप में उपस्थित हुए और नंदिपेण मुनि को वन्दन करके स्वर्ग में चले गये। वेयावच्च निययं, करेह उत्तमगुणे धरंताणं सव्वं किर पडिवाई, वेयावच्यं अपडिवाई। उत्तम प्रणवान व्यक्ति को वैयावच्च अवश्य करना चाहिये, क्योंकि समस्त गुण प्रतिपाती हैं और वैवावच्च गुण अप्रतिपाती है। (उपदेशमाला से) JARA 2030 . Twial . _. A .- 1 3 - S ED:---- नंदिषेण मुनि, ग्लान मुनि को पीठ पर उठा कर मन्द-मन्द कदमों से बाजार में होकर चले.
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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