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________________ ९० सचित्र जैन कथासागर भाग - १ कारण ढूँढने के लिये वह कभी-कभी स्तब्ध हो जाता परन्तु जो अन्तर बड़े समझदार व्यक्ति भी शीघ्र नहीं ज्ञात कर सकते, उसे वह थोड़े ही खोज सकता था? कभी वह निःश्वास छोड़ता और ‘ए नंदिपेण' की पुकार होते ही वह कार्य में लग जाता | वह अव नित्य उद्विग्न रहने लगा। उसका मन मामा का घर छोड़ कर अन्यत्र अपना भाग्य आजमाने का हुआ। मामा उसके चेहरे से यह भाव समझ गये । उसका सुख, महत्वाकांक्षा 'अव मैं घर वाला और पत्नी वाला बनूं' इसमें समाविष्ट है यह जानकर उन्होंने अपनी प्रत्येक पुत्री को नंदिषेण के साथ विवाह करने के लिए समझाया, परन्तु सब पुत्रियों ने कहा, 'योग्य पति नहीं मिलेगा तो हम आत्महत्या कर लेगी, परन्तु इस बेडौल, कुरूप मजदूर के साथ विवाह करके हमें अपना जीवन नष्ट नहीं करना है।' (३) ठीक मध्यरात्रि का समय था । घर सुनसान था। सभी लोग सोये हुए थे। इतने में नंदिषेण उठा । मुक रह कर मामा-मामी को नमस्कार किया और जिस घर ने अन्नजल प्रदान करके पाला-पोसा उसका स्मरण करता हुआ अपने दुर्भाग्य पर निःश्वास डालते हुए वह मन्द कदमों से घर के बाहर निकला । भूखा-प्यासा वह चलने लगा। 'ऊपर आकाश और नीचे पृथ्वी के अतिरिक्त मेरा कोई आधार नहीं है' - यह सोचता हुआ वह आगे चलता रहा। कभी तो वह किसी स्थान पर जाकर सेवा-शुश्रूषा करके अपना भाग्य आजमाने का विचार करता तो कभी ऐसा दुःखी जीवन जीने की अपेक्षा आत्महत्या करके दुःख का अन्त करने का मन में विचार करता। इतने में उसने दूर एक मुनि देखे जो स्थिर एवं ध्यान-मग्न थे। उन्होंने अपना ध्यान पूर्ण किया और नंदिषेण को धर्मलाभ दिया। दुःखी के आश्रय मुनि को 'भगवान' कहते समय नंदिषेण का गला भर गया और उसके नेत्रों में आँसू आ गये । आँसू पोंछ कर काँपती देह से धड़कते कण्ठ से नंदिषेण ने मुनि को संक्षेप में अपना वृत्तान्त कहा। ___ मुनि ने कहा, 'नंदिषेण! आत्म हत्या दुःख से मुक्त होने का मार्ग नहीं है। तु स्वयं को भले अभागा मानता हो परन्तु तुझे ध्यान रखना चाहिये कि मानव-भव सर्वोत्तम सौभाग्य है और वह तुझे प्राप्त हुआ है तथा तेरी सशक्त देह है । नंदिषेण! संसार के भोग और सम्पत्ति के अभाव को तुझे दुर्भाग्य की संज्ञा नहीं देनी चाहिये | नंदिषेण की दुःख की कल्पना परिवर्तित हो गई। उसने मुनिवर का शरण लिया । वह श्रमण वना, तपस्वी वना और ग्लान वृद्ध-मुनियों एवं वाल-मुनियों के वैयावच्च
SR No.008714
Book TitleJain Katha Sagar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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