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________________ ८८ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ स्त्रियों के साथ विषय-भोग में व्यतीत करता है और वृद्धावस्था रोग एवं देह की चिन्ता में व्यतीत करता है। धर्म करने का तो उसे समय ही नहीं मिलता। मुझे मृत्यु से पूर्व कुछ धर्म का भाता बाँधना चाहिये। मेरे पूर्वज क्या राजा नहीं थे? उनके पास मुझसे क्या कोई अल्प वैभव था? फिर भी उन सबने सिर पर श्वेत बाल आने से पूर्व यह वैभव छोड़ कर आत्म-कल्याण किया था। जबकि मैं तो सिर पर श्वेत बाल आने पर भी विषयासक्त शुकरवत् रानियों के पीछे पागल बना फिरता हूँ। मैं शुभ दिन देख कर गुणधर कुमार को सिंहासन पर बिठा हूँ और इस माया जाल से मुक्त होकर साधु बन जाऊँ। आहा! कैसा यह सुन्दर एवं निर्मल जीवन है कि जिसमें शत्र, मित्र सब पर समान दृष्टि, भूमिशयन और वन-प्रदेश में पाद-विहार का आनन्द है।' 'राजन्! ये विचार मैंने मेरे बाल सँवारती नयनावली के समक्ष व्यक्त किया। मेरा विचार सुनकर उसके नेत्रों में आँसू छलक आये | वह रोती हुई वोली, 'प्राणनाथ! गुणधर अभी बालक है। उस पर राज्य का उत्तरदायित्व भला कैसे डाला जा सकता है? संयम ही सत्य है, परन्तु अभी तो चलाओ, इतनी शीघ्रता क्या है? कुमार तनिक और बड़ा हो जाये तो हम दोनों साथ-साथ संयम अङ्गीकार करेंगे।' राजा ने कहा, 'देवी! जीवन का क्या भरोसा? काल जिसके वश में हो, प्रकृति जिसका मन-चाहा कार्य करती हो वही धर्म के लिए प्रतीक्षा करेगा। मैं तो संयम अङ्गीकार करूँगा ही। "यदि आप संयम अङगीकार करेंगे तो मैं पति-विहिन वन कर थोडे ही यहाँ रहँगी? ABINA YYYYYYI UP ! राजा ने कहा, 'देवी! जीवन का क्या भरोसा? काल जिसके वश में हो यही धर्म के लिए प्रतीक्षा करेगा. में तो संयम अंगीकार करुंगा ही.
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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