SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ के बाहर उद्यान में सुधर्म नामक मुनिवर के पास विनयंधर नृप ने यशोधरकुमार, विनयमती एवं अनेक अन्य प्रजा-जनों के साथ भाव पूर्वक प्रव्रज्या ग्रहण की। ___समय व्यतीत होते होते विद्याध्ययन करके यशोधर मुनि यशोधरसूरि बन गये और उनके संसर्ग से चौधे भव में समरादित्य का जीव जो धनद था वह विरक्त होकर उनके पास दीक्षित हुआ। इस प्रकार यशोधरसूरि एवं विनयमती साध्वी ने अपनी आत्मकथा कह कर अनेक जीवों के निमित्त अहिंसा का मार्ग प्रशस्त किया और स्वयं अनेक वर्षों तक चारित्र की विशुद्ध आराधना करके केवलज्ञानी बन कर मोक्ष में गये। । उनके साथ दीक्षित होने वालों में से अनेक जीव मोक्ष में गये और अनेक देवलोक में गये। यशोधर एवं विनयमती आज नहीं हैं तो भी अल्प हिंसा भव-भव में कितनी दुःखद सिद्ध होती है उनके दृष्टान्तों के रूप में उनका नित्य स्मरण किया जाता है और जिनके आलम्बन से अनेक जीव हिंसा से वचते हैं। (११) इस 'यशोधर चरित्र के मूल रचयिता १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता हरिभद्रसुरि हैं। उक्त मूल चरित्र के आधार पर विक्रम संवत् १८३९ में जैसलमेर में उपाध्याय श्री मागाकामmETTIATI नगर के बहार उद्यान में सुधर्म नामक मुनिवर के पास विनयंधर राजा यशोधरकुमार आदि अनेक प्रजाजनों के साथ भाव पूर्वक प्रव्रज्या अंगीकार कर अणगार बने.
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy