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________________ १२२ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ उन्हें क्षमा करना । मैं आपके अपराध क्षमा करता हूँ। मुझे राज्य की आवश्यकता नहीं है। नगर-जनों! मैं तुम्हारा राजा बना रहने योग्य नहीं हूँ। मेरा मुँह देखना भी पाप है तो फिर मैं तुम्हारा राजा बना रह कर क्यों तुमसे नमन कराऊँ? पुत्र! तुम्हारा कल्याण हो । नगर-जनो! आपको भी शान्ति प्राप्त हो । मैं अव गुरु-देव के चरणों में लीन होता हूँ और मेरा किसी भी प्रकार से कल्याण हो तो मैं उनकी शरण में जाकर अपना कल्याण करना चाहता हूँ।' हम इसमें अधिक नहीं समझे परन्तु बाद में अर्हदत्त की बात सुन कर हमें भी जातिस्मरणज्ञान हुआ । जैसी राजा की स्थिति थी वैसी स्थिति हमारी भी हुई। घड़ी भर पूर्व एकमात्र राजा अपराधी तुल्य वन कर नेत्रों से अश्रु यहा रहा था, अव हम तीनों जने अश्रु बहाने लगे। ___ मारिदत्त! प्रजाजनों ने आँसू बहाये, पक्षियों ने दाने चुगना छोड़ दिया और वाय स्थिर हो गई। इस सबके मध्य हम तीनों ने सुदत्त मुनि से पारमेश्वरी दीक्षा अंगीकार की और विजयधर्म नामक राजा के भानजे को राज्य सौंप कर हम तीनों ने पाप को तिलांजलि दे दी। पाँच मन की बोरी उठाने वाला श्रमिक बोरी रख कर जैसे हलका हो जाता है उसी प्रकार संसार का परित्याग करने से हम पुष्प जैसे हलके हो गये। । तत्पश्चात् हमने सुदत्त मुनि भगवंत को कहा, 'भगवन्! नयनावली अभी तक जीवित है। उसका आयुष्य उसके हाथ में है तो आप उसे प्रतिबोध देकर उसका उद्धार नहीं कर सकते?' राजा गुणघर, अभयरुवि राजकुमार एवं अभयमति राजकुमारी ने असार संसार का परित्याग कर पारमेश्वरी प्रव्रज्या अंगीकार किया एवं पुष्प तुल्य हलके बन गए.
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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