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________________ १२० 'सचित्र जैन कथासागर भाग - २ परम्परा से अनेक भवों तक संसार में परिभ्रमण करते हैं और अत्यन्त कठिनाई से भी उनका उद्धार नहीं होता।' ___ मुनिराज अपनी वैराग्य-वाहिनी वाणी प्रवाहित कर रहे थे कि राजा की देह काँपने लगी, देह में पसीना-पसीना हो गया और जिस प्रकार कोई वृक्ष तने में से उखड़ कर भूमि पर गिर पड़ता है उसी प्रकार वे धराशायी हो गये। __ श्रावक अर्हदत्त, कालदण्ड एवं अन्य सब भयभीत हो गये। क्या करना यह किसी को नहीं सूझा और समस्त परिवार - उदकमुदकं वायुर्वायुर्वतासनमासनं भजत भजतछत्रं हाहाऽऽतपः आतपं। इति सरभसं भीतभ्राम्यज्जनानसम्भवस्तदनु तुमुलो लोलः कोलाहलः सुमहानभूत्।। 'पानी लाओ, पानी लाओ; अरे! राजा को पंखा झुलाओ, हवा डालो, अरे! क्यों कोई ध्यान नहीं दे रहा? राजा भूमि पर सोये हुए हैं उनके लिए आसन बिछाओ। अरे! राजा की देह सर्वथा ठण्डी पड़ गई है, उसे तपाओ' इस प्रकार जोर से बोलने से अनेक प्रकार का कोलहल हुआ। समदृष्टा मुनि यह सब देख कर स्थिर हो गये। शीतल उपचार करने के पश्चात् गुणधर उठ बैठा परन्तु उसने किसी की और दृष्टि नहीं डाली। पास ही अनेक लोक एवं सेवक थे परन्तु वह किसी की ओर देख नहीं सका। वह लज्जित हुआ। मातापिता का हत्यारा, पग-पग पर मांस, मदिरा का सेवन करने वाला में इन सबको क्या मुँह दिखाऊँ? उसे ऐसा विचार होने लगा कि यदि भूमि मार्ग दे तो मैं उसमें समा जाऊँ? संसार में समस्त पापों के प्रायश्चित होते हैं परन्तु मेरा पाप तो प्रायश्चित की सीमा को भी लांघ चुका है। एक बार नहीं परन्तु पग-पग पर अपने उपकारी माता-पिता का मैंने वध किया है। क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? बस, अन्य कुछ नहीं, मैं जल मरूँ और अपने अपवित्र जीवन से संसार को अपवित्र करने से रोकुं।' ___ मुनि की ओर नीची दृष्टि करके वह कहने लगा, 'भगवन्! मैं मुँह दिखाने योग्य नहीं हूँ। मैं चाण्डाल से भी भयंकर हूँ। मैं अग्नि-स्नान करके अपना अस्तित्व समाप्त करना चाहता हूँ। मुनिवर ने कहा, 'राजन्! आत्म हत्या कोई पाप का प्रतिकार नहीं है। यह तो कायरता है। मनुष्यने जिस विपरीत मार्ग पर जाकर पाप किया हो, उसे उस मार्ग से पुनः लौट कर पुण्य करना चाहिये। आत्म हत्या तो भव-भव में भटकाने वाला दुर्गति का मार्ग शोकलोमभयकोथैरन्यैर्वा कारणान्तरैः। कुर्वतः स्क्वधं जन्तोः परलोको न शुष्यति।। शोक, लोभ, क्रोध अथवा चाहे जिन अन्य कारणों से आत्महत्या करने वाले मनुष्य
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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