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________________ हिंसा का रुख अर्थात् आत्मकथा की पूर्णाहुति ११७ उसका गला रूंध गया और रूंधे गले से वह बोला, 'महाभाग ! ऐसे महापुरुष का संहार करने के लिए मैंने कुत्ते पीछे लगा कर उन्हें मारने की अभिलाषा की। ये हिंसक कुत्ते समझे कि ऐसे शान्त मुनि का संहार नहीं किया जा सकता अतः वे इनकी परिक्रमा करके इनके समीप बैठ गये। मैं कुत्तों से भी गया वीता यह नहीं समझ पाया । मेरा क्या होगा ? इस पाप से मैं कौनसे भव में मुक्त होऊँगा?" अर्हदत्त ने कहा, 'राजन्! जीवन में जय पाप-बुद्धि जाग्रत होती है तब मनुष्य को सार असार का विवेक नहीं रहता और जव पाप-वृद्धि का शमन हो जाता है वही उसकी कल्याण दिशा है। आप लज्जा का अनुभव न करें। मुनि को तो आपके अकेले के नहीं परन्तु आज तक अनेक व्यक्तियों के ऐसे उपसर्ग हुए हैं और उन सबको सहन करके इन्होंने संयम जीवन की कसौटी की है। आप इनकी ओर से क्रोध की तनिक भी शंका न करें | नदी का शीतल जल शीतलता प्रदान करता है, ताप शमन करता है । उनके पास जाने से आप शीतल होंगे। आप मेरे साथ चलें, लज्जा का अनुभव न करें। उनके दर्शन प्राप्त करना महा भाग्य का कारण है और आपने उनके दर्शन प्राप्त किये हैं अतः आप महान् भाग्यशाली हैं।' राजा गुणधर अर्हदत्त को साथ लेकर उसकी अति उत्कण्ठा से मुनि के पास आया। आते ही वह उनको भाव पूर्वक वन्दन करके बोला, 'भगवन्! आप मेरा अपराध क्षमा करें, मेरी रक्षा करें, मेरा उद्धार करें। भगवन्! मैं महा पापी हूँ। हे विश्ववंद्य ! हे विश्व के जीवों का कल्याण करने वाले! हे शत्रु-मित्र पर सम-दृष्टि रखने वाले ! हे प्राणी मात्र को दर्शन से पुनीत करने वाले ! मैंने आपका वध करने की केवल भावना ही नहीं रखी भगवन्! मेरा अपराध क्षमा करें, मेरी रक्षा करें, मेरा उद्धार करें. राजन! तीव्र पश्चाताप पाप का नाश करता है. आप में सद्धर्म-रूचि उत्पन्न हुई है अतः आपका कल्याण है.
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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