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________________ ११४ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ डाला जाये?' कह कर उसे रोका | हमने यहाँ सुख में किस प्रकार दिन व्यतीत किये उसका तनिक भी पता नहीं लगा। इस प्रकार अनेक कष्टों के पश्चात् हमारी सुख की घड़ी आई। (३) राजन् मारिदत्त! अब जीवन परावर्तन का हमारा स्वर्ण काल आता है और हमारा अद्भुत परिवर्तन होता है। एक बार ग्रीष्म ऋतु का समय था । मालवा के नरेश गुणधर शिकार के शौकिन थे और वैसे ही वे हिंसा-प्रिय भी थे। बीच में हमारे गर्भावस्था के समय में जयावली के आग्रह से उन्होंने शिकार करना छोड़ दिया था, परन्तु तत्पश्चात् उनकी जन्म की आदत फिर प्रारम्भ हो गई। उन्होंने विचार किया कि कुछ समय के लिए राज्य-कार्य मंत्रियों को सौंप दू और एक यार बड़े प्रमाण में ऐसा शिकार कल कि समस्त देवीदेवताओं को उनका माँस पर्याप्त मात्रा में चढ़ा सकूँ। उन्होंने अपने साथ शिकारियों को लिया और साथ ही साथ उनके चंचल एवं चतुर कुत्तों को भी लिया और दूर से पशुओं के गलों में फन्दे डालकर उन्हें फँसाने वाले अनेक वागुरिकों को भी साथ लिया। इस प्रकार अपना हिंसक परिवार साथ लेकर राजा गुणधर क्षिप्रा नदी के तट पर आया | इन भैरव यमराज तुल्य शिकारियों को देखकर पक्षी चहचहा उठे । मन्द मन्द यहने वाली वायु भी यह मान कर कि कहीं इन पापियों का मुझे स्पर्श न हो जाये, कुछ समय के लिए रुक गई। ___ गुणधर एवं उसके हिंसक सेवक कुछ दूर चले, इतने में उन्हें एक वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग ध्यानस्थ एक मुनि दिखाई दिये। मुनि की दृष्टि नीचे थी। उनकी देह तप से दुर्वल थी, फिर भी चारों ओर उनके तप का ही प्रप्तार था। वर्षाऋतु के आगमन से जैसे जवाप्त सिमट जाता है उसी प्रकार राजा गुणधर इन मुनि को देखकर तनिक उद्विग्न हुआ। उसने माना कि मेरी उत्कण्ठा तो अनेक जीवों का वध करके समस्त देवी-देवाताओं का तर्पण करने की थी। उसमें सर्व प्रथम इस नंगे सिर वाले साधु के दर्शन से अपशकुन हो गया। मार्ग में अन्य कोई नहीं और सर्व प्रथम यह शिकार एवं हिंसा का विरोधी साधु क्यों मिला? अन्य पशु-पक्षियों का वध करने से पूर्व उसकी इच्छा इसका वध कर डालने की हुई, परन्तु दूसरे ही क्षण विचार आया कि इस निःशस्त्र साधु का वध करके मैं क्यों अपने हाथ कलंकित करूँ? उसने अपने साथ आये शिकारियों को कहा, 'तुम इन कुत्तों को साधु पर छोड़ो और उसको चीर-फाड़ कर अपना प्रथम अपशकुन दूर करो।' शिकारियों ने राजाज्ञानुसार अपने समस्त कुत्ते मुनि की ओर छोड़ दिये। राजा
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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