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________________ १०४ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ उसने वल पूर्वक मुझे भूमि पर गिरा कर मेरा वध किया। राजन् मारिदत्त! गुणधर राजा के माँस के लिए रसोइये के द्वारा मेरा वध हुआ, परन्तु मेरी माता जो वकरी वनी थी उसका क्या हुआ वह सुनो। वह वकरी के भव में से मर कर एक वन में भैंसे के रूप में उत्पन्न हुई। वह भंसा अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट एवं शक्तिशाली बना। वह सरोवर की पाल तोड़ता और सरोवर पर पानी पीने के लिए आने वाले पशुओं को सताता। राजा का प्रमुख अश्व एक बार सरोवर पर पानी पीने के लिए आया। यह भैंसा उसके पीछे पड़ गया और इसने शक्तिशाली अश्व को लकड़े की तरह चीर कर मार डाला । जव यह यात गुणधर राजा को ज्ञात हुई तो उसने चारों ओर शस्त्रधारी सैनिक रखकर उस भैंसे को पकड़वाया और उसे नगर में लाकर अग्नि की ज्वालाओं में जीवित जला कर मार दिया। तत्पश्चात् उसका माँस पकवा कर राजा ने अनेक मनुष्यों को दिया। राजा भी उक्त माँस खाने के लिए बैठा परन्तु उसे वह अच्छा नहीं लगा। अतः उसने रसोइये से अन्य माँस मांगा। रसोइये के पास अन्य प्रबन्ध नहीं होने से उसने मेरा वध किया। राजन् मारिदत्त! एक वार आटे का मुर्गा बना कर मारने के फलस्वरूप इस प्रकार मेरा और मेरी माता का पाँचवा-छठा भव हुआ। ___ मुझे प्रत्येक भव में राजमहल, पुत्र एवं पत्नी देखकर जातिस्मरणज्ञान हुआ परन्तु मुझे उन्हें देखकर विरक्ति नहीं हुई। मैं यह सब देखकर उलटा राग एवं क्रोध में अधिक डूवा । पशु के भव में भी यदि यह सब देख कर मुझे सच्चा वैराग्य हुआ होता तो अवश्य ही. मेरा कल्याण हो जाता; परन्तु हुआ नहीं, और जिसके कारण मैं समस्त भवों में हिंसा के बल पर भटकता रहा।
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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