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________________ ९८ सचित्र जैन कथासागर भाग - २ उभर आया। मैने शूरता से कूद कर खिड़की में होकर कमरे में प्रवेश किया और चोंचे मार-मार कर नयनावली को तंग करने लगा। नयनावली भोग में यह अन्तराय सहन नहीं कर सकी। अतः उसने अपनी स्वर्ण की करधनि से मुझे क्रूरता पूर्वक मार कर सीढ़ी के पास ढकेल दिया। मैं निश्चेष्ट वन कर सीढ़ी से लुढ़क गया और भूतल पर आ पहुंचा। उस समय मोर को वचाओ-बचाओ करती हुई दासियाँ दौड़ी आई और यह देखकर राजा गुणधर भी ‘मोर को पकड़ लो, पकड़ लो' करता हुआ आया। इन सब में से कोई पकड़ता उससे पूर्व तो वह स्वामिभक्त कुत्ता दौड़ा और मुझे गले से पकड़ कर भागा । राजा के ‘मोर को छोड़ दे' कहने पर भी उसने मुझे नहीं छोड़ा अतः क्रोधावेश में उसने वल पूर्वक स्वर्ण की करधनि मार कर उसे मार दिया। कुत्ता तड़प कर नीचे गिर पड़ा और मैं मोर भी उसके मुँह में से कूद कर तड़प कर मर गया। गुणधर राजा ने 'हे प्रिय मोर! हे कुक्कुर!' कहते हुए अपने सगे माता-पिता के मरने पर विलाप करे ऐसा विलाप किया परन्तु हमारे प्राण तो कभी के परलोक पहुँच गये थे। राजा ने हमारा अग्नि-संस्कार चन्दन की चिता में किया। हमारे पीछे हमारे कल्याण के लिए उसने याचकों को दान दिया, ब्राह्मणों को भोजन कराया परन्तु उस समय उस में से हमें कुछ भी नहीं मिला । यदि मनुष्य की भाषा होती तो अवश्य राजा गुणधर को वह वात उस समय कहता। Sak NAR IADM । Or राजा यशोघर मोर के भव में अपनी दुराचारिणी पत्नि को चोंच से आक्रमण करता हुआ. अपने ही पांत्र के हार्थो मौत पाता हुआ माता का जीव कुत्ते के रूप में. अहो! संसार की असारता!
SR No.008713
Book TitleJain Katha Sagar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailassagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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