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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir =गुरुवाणी वाणी का व्यापार - परम कृपालु आचार्य भगवन्त श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने, धर्म-बिन्द, द्वारा आत्मा की अनादि कालीन यात्रा का और आत्मा को उस यात्रा में पूर्ण विराम प्राप्त होने का, दोनों प्रकार का उपाय इन सूत्रों के द्वारा बतलाया है. जीवन का संपूर्ण भूतकाल, वर्तमान की सारी परिस्थिति, किस प्रकार भविष्य में पूर्णता को उपलब्ध होना है, ये सभी उपाय इन सूत्रों के द्वारा बतला दिये गये हैं, संपूर्ण परिचय उन्होंने इस कथन के द्वारा कर दिया. मन, वचन, कर्म के ये ऐसे साधन हैं जिनसे व्यक्ति संसार भी उपार्जन करता है और मोक्ष भी इन्हीं साधनों द्वारा प्राप्त करता है, साधन एक है और साध्य दो. मकान बनाने के लिए जिन साधनों का उपयोग किया जाता है, उन्हीं साधनों का कुआँ खोदने के लिए भी उपयोग किया जाता है. आप देखें साधन एक है जिससे राजमहल, राजप्रासाद भी व्यक्ति निर्माण करता है और कुआँ भी उसी के द्वारा खोदता है. इसी प्रकार हमारे जीवन के अन्दर ये तीन प्रकार के साधन हैं मन, वचन, और कर्म. ये तीनों ही साधन या तो स्वर्ग का सोपान निर्माण करदें, मोक्ष में पहुँचा कर अपनी यात्रा में आपको विश्राम दे दें, या फिर अगर उपयोग सही तरीके से नही किया गया, तो ये ही साधन अनंत संसार का परिभ्रमण कराने वाले, अर्थात् कुगति के साधन हैं. मन का उपयोग किस प्रकार होना चाहिए, मेरे अपने शब्दों के अन्दर किस प्रकार का नियन्त्रण आना चाहिए और मेरे आचरण में इस के द्वारा कैसी निर्मलता आनी चाहिए इसका परिचय इन सूत्रों के द्वारा दिया गया है. वाणी के विवेक का दर्शन आपको इनके द्वारा बतलाया गया है. “सर्वत्र निन्दा संत्यागोऽवर्णवादश्च साधुषः।" इन सूत्र का आज अन्तिम दिन है. मैंने आपसे कहा क्लेश का जन्म स्थान आपकी वाणी ही है. वाणी पर यदि अंकुश नहीं रहा, नियन्त्रण नही रहा, और यदि इसका इसी प्रकार उपयोग किया गया तो इस उपयोग का परिणाम विनाश को जन्म देने वाला बनता है. वाणी है तो जरा सी, पर इसके गलत उपयोग से जीवन ज्वाला बन जाएगा. किस प्रकार की वाणी होनी चाहिए, उन गुणों का मैने परिचय दिया. स्तोक, मधुरम्,निपुणं, कार्यपतितं, अतुच्छं। गर्वरहितम्, पूर्व संकलितम्,धर्म संयुक्तम् ॥ - इनमें मात्र दो पर विचार करना बाकी था. उनमें प्रथम यह कि-पूर्व संकलन करके, पहले से सोच करके मुझे अपनी वाणी का उपयोग करना है. और दूसरे यह कि जो कुछ भी मैं बोलूं वह धर्म संयुक्तम् हो. पूर्व संकलितम् और धर्म संयुक्तम् ये वाणी के दो अन्तिम - do 334 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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