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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी उन्होंने कहा - "मैंने तो अपना जीवन गुरु को सर्मिपत किया है. उनकी आज्ञा का अनादर मेरे इस जीवन में होना संभव है नहीं. राजन्. जो आपको करना हो करें. मेरे अन्दर आपके प्रति कोई दुर्भावना नहीं, यह मेरे कर्म का दोष है, कोई पूर्व-कृत कम उदय में आया है उसका मैं स्वागत करता ह. मैं प्रतिकार करता नहीं, मेरा कोई क्लेश नहीं अपनी साधना के अन्दर मुझे पूर्ण विश्वास है, सदगति प्राप्त होगी, इतना तो मैं निश्चिन्त ह. आप विलम्ब क्यों करते हो.? अपनी आज्ञा का पालन प्रसन्नता से कीजिए." "सो जाइये इसके अन्दर.” लाल सुर्ख लोहे का तवा. बड़े-बड़े कील लगे हुए. अरिहन्ते शरणं पव्वज्जामि. सदा के लिए सो गये. प्राण अर्पण कर दिया, सारा शरीर जलकर के राख बन गया. ये हमारे पूर्वज, एक परमात्मा के आदेश के लिए इतनी प्रामाणिकता, वफादारी. जीवन अर्पण कर दिया, और शासन के इतिहास में वे अमर हो गये. ऐसा है हमारा इतिहास. __ छ: महीने में राजा की मृत्यु हुई. सारे राज्य के अन्दर अराजकता फैल गई. वह दुष्ट साधु भी मरकर के व्यन्तर बना. दुष्ट प्रकृति का देव बना, क्योंकि चरित्र बल तो था, चरित्र में कोई दोष नही था, उस कारण से गति कुछ अच्छी मिली. पूर्व का द्वेष, पुरे राज्य के अन्दर भयंकर उपद्रव उसने कर दिया, उपद्रव का परिणाम एक-एक घर में लोग मरने लग गए. मौत के मुंह में जाने लग गए, भयंकर बीमारी फैल गई, लोगों में एक प्रकार का भय छा गया, उसके लिए बहुत बड़ा अनुष्ठान किया गया, और प्रार्थना की गई. तब जाकर के उसने अप्रकट रूप से लोगों को यह कहा -- "मैं तभी शान्त हो सकता हूं, मैं बाल चन्द्र हूं, मुझे आचार्य पद नही दिया गया, मेरी इस वासना के कारण, मेरी आत्मा को जो दुखः पहुंचा, उसका यह वर्तमान परिणाम सारे नगर को साफ करके रहूँगा. एक भी व्यक्ति इस नगर में जीवित नहीं रहेगा." मेरे साथ जो व्यवहार किया गया उसका प्रतिशोध लेकर के रहूंगा. आखिर में जो परिणाम आना था, वही आया, वहां के लोगों ने बहुत सुन्दर अनुष्ठान करके प्रार्थना करके उसे शान्त करने का प्रयास किया. उसके बाद उससे पूछा कि "आपकी अन्तर्कामना क्या है? बतलाइये. इस तरह से निर्दोष व्यक्ति जब मर जाएंगे, इन निर्दोष व्यक्तियों को मारकर के आप क्या प्राप्त करगें. क्या मिलेगा आपको?" ___ उसने कहा – “अगर मेरी एक इच्छा तुम पूरी कर दो, तो मैं ये उपद्रव शान्त कर दूं." "आपकी इच्छा क्या है?" “चर्तुदशी के दिन पाक्षिक प्रतिक्रमण में, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में, प्रति चतुर्दशी के दिन मेरे गुरु की बताई हुई अपूर्ण रचना, तीर्थंकरों की स्तुति और प्रार्थना, जो स्त्रोत है, वह जो बोला जाता है चैत्य वन्दन के रूप में, प्रतिक्रमण प्रारम्भ करने से पूर्व, अगर मेरी बताई हुई स्तुति तुम बोलो तो मैं शान्त हो जाऊ." - 326 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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