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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir di । गुरु को बड़ा आवेश आ गया, क्या बार-बार मुझे तू जगाता है, मुझे क्या सिखाता है. बार-बार मुझे आकर बतला रहा है, मैं क्या बालक हूं? मैं सब जानता हूं. सब समझता हं. जरा आवेश में आ गए. आवेश में आकर शिष्य को मारने के लिए गए. सामने खडा था, आवेश में दौड़कर जाने लगे, मारने के लिये और वहीं पर मौत हो गई. दुर्ध्यान के अन्दर जीभ पर नियन्त्रण नहीं रहा, इसका यह परिणाम मरकर के इसी योनि की प्राप्ति हुई क्योंकि चरित्रवान था, ब्रह्मचारी का महान गुण था, सदाचारी जीवन था. फिर से उन्होंने संन्यास ग्रहण किया. संन्यास लेने के बाद तपस्वी बने, तापस कहलाए. बच्चों की आदत है. बार-बार आश्रम जाते भूल कर फल तोड़ने का प्रयास करते. वही गुस्से का संस्कार, वही क्रोध का संस्कार, पूर्व से लेकर आए थे, भयंकर क्रोध आता. बच्चों को मारने दौड़ते. बच्चे तो चालाक थे, भाग जाते. मन के अन्दर एक दिन विचार कर लिया, इन बच्चों को एक दिन तो शिक्षा देनी है. ये बार-बार छटक जाते हैं, भाग जाते हैं. हमारी मसकरी करते हैं और आश्रम के फल को तोड़ते हैं. फूलों को तोड़ते हैं. उन्होंने एक बहत बडी खाई बनाई. ताकि बच्चे आए जब वे फल फलों को तोडें. मैं उनके पीछे भागूं और वे इस गढ़े में गिर जाएं. फिर पकड़े जाएं और मैं उन्हें मारूं. संन्यास लेने के बाद क्रोध के संस्कार नहीं गए. उसका यह परिणाम नियन्त्रण नहीं रहा. रात्रि का वक्त था, बच्चे मौका देखकर आए. उधर से निकल रहे थे, इच्छा हुई कि कुछ फल तोड़ लाएं. जैसे ही उनके ध्यान में आया कोई बगीचे में घुसा है. फल तोड़ने का प्रयास कर रहा है. एकदम आवेश में आ गए. संयोग ऐसा था जो खड्डा खोदा था उसमें स्वयं ही गिर गए. बच्चे तो भग गये, वे स्वयं गिर गये. गिरे भी इस प्रकार से कि वहीं उनकी मृत्यु हो गई. मरकर के सर्प योनि में गए. यहीं मरकर के चण्ड कौशिक सर्प बनें. ऐसा विषधर नाग चण्ड कौशिक, वही क्रोध का संस्कार. दृष्टि में विष था, आप की आंख से आंख मिलाए और जहर चढ़ जाए. उसकी दृष्टि के अन्दर भी जहर था. इतना खतरनाक सर्प था. परमात्मा महावीर का संपर्क हुआ. लोगों ने कहा कि भगवन्, उस रास्ते से आप न जाएं. बड़ा खतरनाक सर्प है. आपको कष्ट देगा. रास्ता ही बन्द हो गया. इतना विकराल वह प्रदेश बन गया. दिन के समय भी कोई पशु-पक्षी आने का साहस नहीं करते. परन्तु परमात्मा तो करुणा निधान थे अपने ज्ञान के द्वारा उन्होंने ये जान लिया कि मेरे जाने से ही इस आत्मा का कल्याण होने वाला है. यह आत्मा सदगति में जाएगी, सहन करके इस आत्मा को शान्ति देने वाला बनूं. इस मंगल भावना से प्रभु गए. गांव के लोगों ने मना किया, फिर भी गए. जाकर के उसी के बिल के पास ध्यानस्थ रहे. करुणासर्ग अवस्था में वे ध्यानस्थ रहे. आत्म दशा की उसी अवस्था में मग्न रहे. कैसा प्रेम, कैसा वात्सल्य परमात्मा के अन्तर in A 6 . मि 295 For Private And Personal Use Only
SR No.008711
Book TitleGuruvani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year1996
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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