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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रद्धा व रूचि सहित आत्मा में स्थिरता है वहीं भाव- निक्षेपरूप यथार्थ परिणमनशील सम्यग दर्शन है | ज्ञान में आत्मा का शुद्ध भाव झलकना ही सम्यग् ज्ञान है । साधु या श्रावक का महाव्रत या अणुव्रतरूप आचरण सम्यग् चारित्र है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मा में गहनता है किन्तु सही रूप से व्यवहृत हो तो गहनता में ही सहजता की प्राप्ति होती है । आत्मा से पार्थक्य होता है तभी जटिलता की जीवन में प्रविष्टि हो जाती है । आत्म रमण को ही सहजता के उपक्रम के रूप में देखा जा सकता है, स्वीकारा जा सकता है । मिथ्यादृष्टि जीव दुःखी और सम्यकता की दृष्टि से जो जुड़ा है सुखी होता है । जो सबको आत्मदृष्टि से देखता है अर्थात् आत्मा की पर्यायों को नहीं देखता है वह समदर्शी है। समदर्शी वही है जो आत्मदृष्टि से सबको एक सा देखता है । आत्मा स्वभावतः वीतराग है. अतः यह जरूरी है कि हम आत्मस्वरूप को संभाले । इन्द्रिय, और मन को संभालना अधूरा अपूर्ण दृष्टिकोण है । मन और इन्द्रियों में ही कैद होकर जीवन को बर्बाद कर देना स्वयं के साथ, स्वयं के द्वारा अन्याय एवं अराजकता है. अध्यात्म का दृष्टिकोण ही सच्चा दृष्टिकोण है, इसीसे जीवन, जीवन के रूप में खिलता, संवरता है । अन्यथा आत्मा से, अपने आपसे कट कर तो इस संसार में कई जीते हैं. ऐसे जीवन का क्या अर्थ है जिस जीवन में अध्यात्म का समावेश नहीं है। आत्मप्रतीति के अभाव में की जानेवाली साधना, साधना नहीं अर्थात् विराध है | आगम गाथा है - अरू अमरू गुण गण णिलउ, जहि अप्पा थिरू ठाई । सो कम्मेहि ण बंधियाउ, संचिय पुव्व विलाइ ॥ जहाँ अजर अमर गुणों का निधान आत्मास्थिर हो जाता है वहाँ वह आत्मा नवीन कर्मों से नहीं बंधता है, पूर्व में संचित कर्मों का क्षय करता है । आत्मा में लीन भव्यजीव मोक्षमार्गी है। आत्मरमण से वीतराग भाव बढ़ता है, वंद्य रूकता है । आत्मा के शुद्ध स्वभाव में रमण करने से आत्मानंद का रस आता है । आत्मध्यानी ही गुण स्थानों की श्रेणी पर चढ़ सकता है । अपनी आत्मा ही सर्वोपरी है । अपनी आत्मा से विलग होकर मनुष्य चाहे जहाँ भटके, चाहे जिसकी आराधना करे, चाहे जिसको पूज्य अध्यात्म का स्रोत मन इन्द्रियाँ नहीं : आत्मा है For Private And Personal Use Only - 145
SR No.008701
Book TitleAdhyatma Ke Zarokhe Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year2003
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Spiritual
File Size11 MB
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