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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खाक हो जाता है। मानव की नीतिमत्ता, प्रामाणिकता, चारित्र्य सभी लोभ के चलते न्यून या शून्य हो जाते हैं। लोभ भी एक प्रकार की पराधीनता ही है । पराधीनता का सुख आरोपित सुख है शाश्वत नहीं । वास्तव में जीवन के लिए धन आदि की जरूरत होती ही है । उसका पूर्णतः परित्याग गृहस्थ के लिए संभव नहीं है । परिग्रह का अर्थ इसलिए थोड़ा गहराई से जानना होगा। भगवान महावीर ने कहा है - 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' अर्थात् मूर्छा भाव ही परिग्रह है | त्यागी वर्ग भी जीवन यापन के कुछ साधन रखते है पर उनमें उनकी जरा भी आसक्ति नहीं होती है। संग्रह यदि आवश्यकता से अधिक हो तो वह संयम की बाधा बनता है । जो व्यक्ति संग्रह की परिसीमा नहीं बांधता उसको कभी भी संतुष्टि नहीं हो पाती है। कहना होगा . लोभ-प्रलोभ का अंत नहीं होता, इस मद में मानव चारित्र्य खोता । क्या लाभ है उसमें जो अलाभ ही दे, संयम छोड क्यू विष के बीज बोता ॥ अंतहीन रास्ते पर जाने से भला क्या लाभ है ? वह किसी लक्ष्य पर नहीं पहुँचता । उस रास्ते पर जाकर मनुष्य सिर्फ खोता ही खोता है । यहाँ तक कि अपने चारित्र्य जल से भी हाथ धो बैठता है । यह एक ऐसी प्राप्ति है जिसमें परिणाम में शून्य ही हाथ लगता है । लोभ विष के समान है जो संयम के अमृत को भी व्यर्थ कर देता है । वैभव और विलास की प्रतीक द्वारिकानगरी भी एक दिन भस्म हो गई । कोई भी प्रयत्न उसे बचा नहीं सका । जो नष्ट होता है उसके पीछे भागने में कोई सार नहीं है, जग में तो रहना है मगर उसने ममत्व नहीं रखना यही संयम की उत्तम वृत्ति है। संयम का अर्थ है - आध्यात्मिक शक्ति - 127 For Private And Personal Use Only
SR No.008701
Book TitleAdhyatma Ke Zarokhe Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year2003
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Spiritual
File Size11 MB
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