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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और धर्म से शून्य, प्रमाद की वृत्ति ही है। परिग्रह के प्रति लगाव या क्रोध आदि कषायों की उपज ही अनेक प्रकार की विसंगतियों को जन्म देती है और उनके कारण ही विविध प्रकार के भय अस्तित्व में आते है। केवल जुझारु वृत्ति से ही भय को टाला जा सकता है । भय इसलिए भी है कि किसी भी आतंक के अवसर पर आजकल संवेदना नहीं मिलती । संवेदना ही नहीं मिलती तो सहयोग की बात तो उसके बाद की बात है | बड़े से बड़े हादिस को देखकर भी मनुष्य अनदेखा कर जाता है। या उस समय अपनी ओर से कोई पहल नहीं करता । इस प्रकार की अनुरक्षा से भय स्वाभाविक है। वह महसूस करने लगता है कि असंबद्ध स्थितियों में ही उसे रमना है, कोई भी वक्त पर उसका सहारा बन कर नहीं आयेगा, मेरा अपना पात्र यदि कोई बनेगा तो वह धर्म अथवा अध्यात्म ही साबित होगा। भय एक प्रकार से मृत्यु है। भय पर विजय द्वारा ही मृत्यु पर विजय पाई जा सकती है। एक बार दो व्यक्तियों को एक साथ ही एक डाक्टर ने टी.बी. का रोगी घोषित कर दिया। उस समय टी.बी. असाध्य रोगों में गिना जाने वाला रोग था। उसे राज रोग कहते थे। दोनों रोगियों के लिए यह घोषणा एक समान चिंता का विषय थी। पर वे दोनों रोगी अलग-अलग भावना वाले रोगी थे । एक का मन दुर्बल था, एक के मन में जुझारु वृत्ति का वास था । जो दुर्बल मन का व्यक्ति था, डाक्टर का निर्णय सुनते ही उसका मन बैठ गया । वह जीवन से निराश हो गया। उसे अपने सामने मौत खड़ी नजर आई। दिन व दिन वह महसूस करता कि आज उसका स्वास्थ्य कल की बनिस्बत क्षीण हो गया है । दवा लेता, पथ्य भी पालन करता, मगर यह भी भावना रखता कि वह क्षण-क्षण क्षीण होता जा रहा है । वह अशक्ति और अस्वस्थता के आभास से उभर नहीं पाया । उसकी दुर्बल भावना के कारण उसने शय्या पकड़ ली ओर वह शय्या अंततः उसके लिए मृत्यु शय्या सिद्ध हुई। वह देहत्याग कर मृत्यु की गोद में सो गया। दूसरे रोगी की भावना में दृढ़ता थी। उसने मृत्यु की संभावना से अपनी दृष्टि हटा ली । उसने जीवन की संभावना पर ही अपनी दृष्टि रखी। वह सदा के लिए यही विचार करता कि सही दवा और पथ्य से उसमें जीवन के लौट आने की पूरी संभावना है। जीवन के प्रति दृढ अध्यात्म : अभय का द्वार - 107 For Private And Personal Use Only
SR No.008701
Book TitleAdhyatma Ke Zarokhe Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherAshtmangal Foundation
Publication Year2003
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Spiritual
File Size11 MB
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