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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३८ ) तबिन्दु: ४३० मतिज्ञानीछे ते श्रुतज्ञानिथकी सदा अनन्तगुण अधिकछे. मतिज्ञानी श्रुतज्ञानिनः सकाशात् सदैवानंतगुणाधिकः श्रुतज्ञानी वितरस्मान्नित्यमनन्तगुणहीन एव प्राप्नोति ४३१ श्रुतनिश्रित मतिज्ञानना अठावीश अने ऋणसोने छत्रीशभेद थायछे. अश्रुतनिनिधितना औत्पातिकी बुद्धि वगेरे चार भेदछे. मतिअनक्षरले भने श्रुतज्ञान अक्षररूपले द्रव्याक्षर अप्रेक्षाए (वि) साक्षर अने अनक्षरनो भेट्छे (वि) • ४३२ द्रव्याक्षरना अभावथी मतिज्ञानमूकछे अने श्रुतज्ञान मुखरछे अर्थात् द्रव्याक्षर सद्भाववडे स्वपरमत्यायकपणाथी मृगुं नथी. अवधि, मनःपर्यव, अने केवलज्ञान पण गूगांछे. (वि) ४३३ करवक्त्र संयोगथी भोजनक्रियाविषय मतिज्ञान थायछे. शीर्ष घुणाववानी चेष्टाथी निवृति प्रवृति विषयमति ज्ञान थायछे, हवे समजवानुं के शब्द वा अक्षरथी श्रुतज्ञान उत्पन्न थायछे. माटे ते परमबोधकछे तेम करवक्त्र चेष्टा तथा शिरोधुनन चेष्टा पण परमबोधकछे. तेथी श्रुतज्ञाननी पेठे मतिज्ञान परबोधक केमन गणाय ? अने ज्यारे परमबोधक गणाय तो मां शो भेद रह्यो ? For Private And Personal Use Only
SR No.008673
Book TitleTattva Bindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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