SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३२ ) तत्त्वधिन्दु. ४१० देव, नारक, गर्भजतिर्यच, तथा मनुष्योने दीर्घकालिकीसंज्ञा होय छे. (वि) ४११. हेतुवादोपदेशिकी संज्ञामां पण भूतकाल अने भविष्यनुं अनुक्रमे स्मरण चितवन छे. पण लांबा कालनुं नथी. विकलेंद्रिय अने समुच्छिम पंचेंद्रियने हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा छे. (वि.) विकलेन्द्रिय जीवो, हेतुवादोपदेशिकी संज्ञाथी इष्टमां प्रवृत्ति करे छे अने अने अनिथी पाछा फरे छे. ४१२ सम्यग्दृष्टिजीवने, दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा होय छे. ज्ञानवरणीय क्षयोपशमभावी जे ज्ञान थाय छे तेमां दृष्टिवा दोपदेशिकी संज्ञा होय छे. आ संज्ञा पामीने सम्यग्दृष्टि संज्ञी कहेवाय छे। अने बाकीना जीवो असंज्ञी कहेवाय छे, चोथा गुणस्थानकथी ते वारमा गुणस्थानक पर्यंत क्षयोपशम ज्ञानमां वादोपदेशिकी संज्ञा ले क्षायिक केवलज्ञानीने संज्ञा होती नथीं. कारण के तेमना ज्ञानमां, सर्ववस्तुनो भास थाय छे तेथी भूतकाल स्मरण, भविष्यकाल विचाररूप संज्ञानो अभाव होय छे. क्षयोपशम ज्ञानमां तेवी संज्ञानो संभव छे. ते संज्ञानो नाश तां ते संज्ञाना अभावे केवली असंज्ञी कहेवाय छे. (वि.) For Private And Personal Use Only
SR No.008673
Book TitleTattva Bindu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year1910
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy