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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीमद् देवचंद्रजीना लखेला पत्र. १०७५ ज्ञान प्रवर्तनावसरे जे वीर्यनो सहकार ते सकाम पंडित वीर्य कही यें अने ज्ञान स्वपर ज्ञायक होय पिण सदा आत्म प्रदेशावगाही रहे. इणी रीते स्वगुणने विषे थिरता स्वगुणभोग आस्वादननी रमणता ते भावचारित्र कहीये. ए रत्नत्रयी जाणी स्वगुण उपादेय करे, परगुण हेयपणे प्रवर्ते, संसारीभाव ज्ञेयपणे प्रवर्ते. सर्व एकेंद्रियादि जीव प्रथम गुणस्थानकवर्ती होय ते उपरे मध्यस्थ अने कारुण्य भावनाए वर्ते. स्वगुण निरावरण थाते छते प्रमोदभावनायें वर्ते, साधर्मी उपरे सदा मैत्रीभावना राखे स्वपर औदयिक सन्मुख द्रष्टि न दियें, तत्र श्रद्धा शुद्ध जीवने धर्म ध्यान कहवाय तो कहेजोजी, जे जीव शुद्ध प्रवर्त्तनाए प्रवर्त्त्या प्रवर्त्ते छे, प्रवर्त्तशे ते जीव धन्य छे, इम विचारबु पण मादकभाव करवो नही. इणीरीते व्यावहारिक सुख छे. भाव सुख तो परिणामनी धारायें होय इति तत्त्वम् ॥ ( २ ) श्री. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ स्वस्ति श्री आदिजिनं प्रणम्य | अहम्मदाबादयी पं० देवचंद्र लिखितं श्रीसूरितबंदरे जिनागमतत्त्वरसिक सुश्राविका जानकीबाई हरषबाई प्रमुख धर्मस्वरूपरुचि आत्मा योग्य धर्मलाभ वांचजो जी । अत्र साता छे । अहिंसाना स्वरूप तो पूर्वे तुम्हने जणाव्या छई अने वली समजवां । मूल अहिंसा अनुबंध होई, ते मध्ये उपयोगीनई भावयी अनें अनउपयोगीनें द्रव्ययी, ते तो जिहां जे गुण स्थानक ते माफक जाणवी. ते मध्ये मुखताई विरतिथी लेवी अनें तेहनां कारण आश्री लिख्युं, वे तो उपादान कारण सर्व ठामे आत्म परिणाम ३ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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