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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org एकोनविंशति श्री मल्लिनाथजिन स्तवनं . रूप नीपजे, तेवारें भव्य जीवने पोतानी तव नीपजाववारूप शक्ति, ते श्रीअरिहंतजीनी सेवनाथी थाय, तेमाटेज निर्धार कर्यो छे, जे हे प्रभुजी माहारो जे पूर्णानंद, पूर्ण अव्याबाध सुख ते प्रगट करवाने पुष्टालंबन केनां पुष्ट नियामकी आलंबन केतां आधार ते श्रीप्रभुजी भव्य जीवना आधार, मुनिजनना प्राणाधार, आचार्य उपाध्यायजीना परम दयाल, भावचिंतामणि समान, समकिती जीवना ध्येय, ध्याताने प्रतिच्छंदरूप, अनंत गुणाकर निर्मल ज्ञानानंदना पात्र, एहवा श्रीजिनराज, महाराज, सुखसमाज, तेहनी सेवना तेहीज पुष्टालंबन छे, तेमाटे सर्व देवेंद्रादिक तेमध्यें चंद्रमा समान, एहवा जे जिनचंद्र श्रीवीतराग अरिहा, तेहनी भक्ति, सेवना आज्ञा मानवा रूप, तदनुयायीपणुं तेहीज त्राण शरण छे, एहवी भक्ति मनमां धरो, स्थिर राखो, अथ स्तुतिकर्तानुं संबोधन हे देवचंद्र ! श्रीजिनचंद्रनी भक्ति केतां चरणसेवना ते मनमां धरो, तो अन्याबाध, जिहां परभावनी पीडा नहीं, परमानंद - रूप, जेहना अनंत गुण ते गण्या जाय नहीं, अक्षय केतां जेहनो छेद नहीं, विनाश नहीं, एहवं जे परमात्मरूप पद ते आदरो, एटले पामो, माटे ए आत्मबाधकता तजी साधकतामा रमे, सिद्ध थाये, एहीज प्रभुसेवनानुं फल छे, माटे हे सिद्धरुचि जीवो! तमे श्रीमल्लिनाथ परमपुरुषोत्तम परमेश्वर, निःकारण, जगद्रत्सल, तेहनें गाओ, स्तवो, रांभारी ध्यावो, प्रथमयी साधक जीवने एहीज आधार छे, एहीज जीवन छे ॥ ७ ॥ इति मल्लिनाथजिन स्तवनं ॥ = Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ७४३
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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